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रथनवमी-रम्भातृतीया
क्योंकि इसमें महानिर्वाणतन्त्र भी सम्मिलित है तथा १९२ में से केवल १० ही वामकेश्वर तन्त्र की सूची से मिलते हैं।
(२) रथक्रान्त एक प्राचीन महाद्वीप (संभवतः अफ्रीका) का नाम है। रथनवमी-आश्विन की शुक्ल नवमी अथवा कृष्ण पक्ष की नवमी ( हेमाद्रि ) को इस व्रत का अनुष्ठान होता है। इस अवसर पर उपवास रखते हुए दुर्गाजी की आराधना या पूजा करनी चाहिए । दर्पणों, चौरियों, वस्त्रों, छत्र, मालाओं से सज्जित रथ में महिष (भैंसा) पर विराजी हुई दुर्गाजी की प्रतिमा स्थापित करनी चाहिए और रथ को नगर की मुख्य-मुख्य सड़कों पर घुमाकर दुर्गाजी के मन्दिर तक ले जाना चाहिए। रात्रि को नृत्य-गान करते हुए जागरण करना चाहिए। दूसरे दिन दुर्गाजी की प्रतिमा को स्नान कराकर रथ को दुर्गाजी को भेंट कर
देना चाहिए। रथयात्रा-किसी देवता की प्रतिमा को रथ में स्थापित कर उसका जुलूस निकालना रथयात्रा कहलाता है। हेमाद्रि, कृत्यरत्नाकर, भविष्यपुराण दुर्गा देवी, सूर्य, ब्रह्माजी आदि की रथयात्रा कावर्णन करते है, जिसे 'पजाप्रकाश' ने भी उद्धृत किया है। गदाधरपद्धति में पुरुषोत्तम की बारह यात्राओं तथा भुवनेश्वर की चौदह यात्राओं का वर्णन है । हेमाद्रि के मत से यह उत्सव लोगों की समृद्धि तथा सुस्वास्थ्य के लिए मार्गशीर्ष मास के शुक्ल पक्ष में
आयोजित होना चाहिए । रथसप्तमी-माघ शुक्ल सप्तमी । इस तिथिव्रत के सूर्य देवता है। षष्ठी की रात्रि को व्रत का संकल्प कर नियमों के आचरण की प्रतिज्ञा करनी चाहिए। सप्तमी को उपवास करना चाहिए। सारथि और घोड़ों के सहित बनाये गये सुवर्ण के रथ को मध्याह्न काल में वस्त्रों से सज्जित कर एक मण्डप में स्थापित कर देना चाहिए । तदनन्तर केसर, पुष्पादिक से रथ का पूजन करना चाहिए। पूजनोपरान्त सूर्य भगवान् की सुवर्ण या अन्य वस्तु की प्रतिमा बनवाकर रथ में स्थापित करनी चाहिए। तदनन्तर मन्त्रोच्चारण करके रथ तथा सारथि सहित सूर्य की पूजा की जानी चाहिए । पूजा में ही अपनी मनःकामना भी अभिव्यक्त कर देनी चाहिए। उस रात्रि को गीत-संगीत, नृत्यादि करते हुए जागरण करना चाहिए । दूसरे दिन प्रातः स्ना-
नादि से निवृत्त होकर दान-दक्षिणा देने के बाद अपने गरु को सुवर्ण का रथ दे देना चाहिए। भविष्योत्तर पुराण में भगवान् कृष्ण ने युधिष्ठिर को कम्बोजनरेश यशोधर्मा की कथा सुनायी है। वृद्ध यशोधर्मा का पुत्र अनेक रोगों से ग्रस्त था । इस व्रत के आचरण से वह समस्त रोगों से मुक्त होकर चक्रवर्ती सम्राट् हुआ। मत्स्यपुराण में कहा गया है कि मन्वन्तर के प्रारम्भ में सूर्य ने इसी तिथि को रथ प्राप्त किया था, अतएव इसका नाम रथसप्तमी पड़ा। रथाङ्कसप्तमी-माघ शुक्ल षष्ठी को इस व्रत के अनुष्ठान का प्रारम्भ होता है । इस व्रत में उपवास तथा गन्धाक्षत पुष्पादि से सूर्य की पूजा का विधान है । इस दिन सूर्य की प्रतिमा के सम्मुख ही शयन करना चाहिए। सप्तमी को भी सूर्यपूजन तथा ब्राह्मणों को भोजन कराने का विधान है। यह क्रिया प्रति मास चलनी चाहिए। वर्ष के अन्त में सूर्य की प्रतिमा को रथ में स्थापित करके उसका जुलूस निकालना चाहिए । भविष्यपुराण (१.५९.१-२६) में इसे 'रथसप्तमी' बतलाया गया है । रम्भातृतीया-(१) ज्येष्ठ शुक्ल तृतीया को इस व्रत का अनुष्ठान होता है । व्रत रखने वाले को पूर्वाभिमख होकर पञ्चाग्नियों (यथा गार्हपत्य, दक्षिणाग्नि, सभ्य, आहवनीय तथा ऊर्ध्वस्थ सूर्य) के मध्य में बैठना चाहिए । ब्रह्माजी तथा देवी, जो महाकाली, महालक्ष्मी, महामाया तथा सरस्वती स्वरूपा है, सम्मुख विराजमान होनी चाहिए। चारों दिशाओं में होम करना चाहिए। देवी के पूजन के समय आठ पदार्थ, जो 'सौभाग्याष्टक' के नाम से प्रसिद्ध हैं, प्रतिमा के सम्मुख रखने चाहिए । सायंकाल में प्रार्थनामन्त्रों के साथ भगवती रुद्राणी की कृपा प्राप्त करने के लिए प्रार्थना करनी चाहिए । तदनन्तर व्रतकर्ता एक सपनोक सद्गृहस्थ को सम्मानित करे तथा शूर्प (सूप या छाज) में रखे नैवेद्य को सधवा महिलाओं में वितरित कर दे। यह व्रत सामान्यतः स्त्रियोपयोगी है।
(२) इस व्रत का यह नाम इसलिए पड़ा कि सर्वप्रथम रम्भा नाम की अप्सरा ने स्त्रीत्व की प्राप्ति के लिए इसका आचरण किया था। मार्गशीर्ष शुक्ल को यह व्रत किया जाता है । एक वर्षपर्यन्त इसका अनुष्ठान होना चाहिए तथा भिन्न-भिन्न नामों से प्रति मास पार्वती देवी की पूजा आराधना करनी चाहिए; यथा पार्वती मार्गशीर्ष में,
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