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युगादिव्रत सत्ययुग, त्रेतायुग, द्वापरयुग तथा कलियुग का प्रारम्भ क्रमशः वैशाख शुक्ल ३ कार्तिक शुक्ल ९, भाद्र कृष्ण १३ तथा माघ की अमावस्या को हुआ था । इन दिनों में उपवास, दान, तप, जप तथा होमादि का आयोजन करने से साधारण दिनों से करोड़ों गुना पुण्य होता है। वैशाख शुक्ल तृतीया को नारायण तथा लक्ष्मी का पूजन और लवणधेनु का दान, कार्तिक शुक्ल नवमी को शिव तथा उमा का पूजन और तिलधेनु का दान, भाद्र कृष्ण त्रयोदशी को पितृगण का सम्मान, माघ की अमावस्या को गायत्रीसहित ब्रह्माजी का पूजन और नवनीतधेनु के दान करने का विधान है। इन कृत्यों से कायिक, वाचिक, मानसिक सभी प्रकार के पापों का क्षय हो जाता है । युगान्तश्राद्ध - चारों युग क्रमशः निम्नोक्त दिनों में समाप्त होते हैं—सिंह संक्रान्ति पर सत्ययुग, वृश्चिक संक्रान्ति पर त्रेता, वृष संक्रान्ति पर द्वापर तथा कुम्भ की संक्रान्ति पर कलियुग समाप्त होता है इन संक्रान्तियों के आरम्भिक दिनों में पितृगणों की प्रसन्नता के लिए श्राद्ध करना चाहिए।
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युगावतारव्रत भाद्र कृष्ण प्रयोदशी को द्वापर युग का आरम्भ हुआ था । उस दिन शरीर में गोमूत्र, गोमय दुर्वा तथा मृत्तिका मलकर नदी अथवा सरोवर के गहरे जल में स्नान करना चाहिए। इस आचरण से गया में किये गये श्राद्ध का पुण्य प्राप्त होगा । साथ ही भगवान् विष्णु की प्रतिमा को घी, दूध तथा शुद्ध जल से स्नान कराना चाहिए इस कृत्य से विष्णुलोक प्राप्त होता है । युधिष्ठिर महाभारत के नायकों में समुज्ज्वल चरित्र वाले ज्येष्ठ पाण्डव। वे सत्यवादिता एवं धार्मिक आचरण के लिए विख्यात है। अनेकानेक धर्म सम्बन्धी प्रश्न एवं उनके उत्तर युधिष्ठिर के मुख से महाभारत में कहलाये गये हैं । शान्तिपर्व में सम्पूर्ण समाजनीति, राजनीति तथा धर्मनीति युधिष्ठर और भीष्म के संवाद के रूप में प्रस्तुत की गयी है । यूप-यज्ञ का स्तम्भ, जिसमें बलिपशु बाँधा जाता था । आगे चलकर सभी प्रकार के यज्ञस्तम्भों और स्वतन्त्र धार्मिक स्तम्भों के अर्थ में भी इस शब्द का प्रयोग होने लगा । यूपारोहण - वाजपेय यज्ञ सोमयज्ञों के अन्तर्गत है । इसमें रथदौड़ की मुख्य क्रिया होती थी। इसकी एक क्रिया यूपारोहण अर्थात् यज्ञयूप पर चढ़ना भी है । इसमें गेहूं के आटे से बने हुए चक्र को, जो सूर्य का प्रतीक माना जाता
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युगादिप्रयोग (दर्शन)
है, धूप के सिरे पर रखते हैं। यज्ञ करने वाला सीढ़ी की सहायता से इस पर उप पर चढ़कर चक्र को पकड़ते हुए मन्त्रोच्चारण करता है - 'हे देवी, हम सूर्य पर पहुँच गये हैं। भूमि पर उतरकर वह लकड़ी के सिहासन पर बैठता और अभिषिचित किया जाता है। योग ( दर्शन ) - धार्मिक साधना का प्रसिद्ध मार्ग । यह दार्शनिक सम्प्रदाय के रूप में विकसित हुआ और इस दर्शन के रचयिता पतंजलि ये दीर्घ काल तक महाभाष्यकार पतंजलि (दूसरी शताब्दी ई० पू० ) को योगसूत्र का प्रणेता समझा जाता रहा है, इसी कारण यूरोपीय विद्वानों ने इस ग्रन्थ को सभी दर्शनों के सूत्रों से प्राचीन मान लिया था । किन्तु सूत्रों में महाभारत एवं योग सम्बन्धी उपनिषदों के भी विचारों का विकसित रूप पाये जाने के कारण तथा इसके अन्तर्गत बौद्ध विज्ञानवाद की आलोचना होने के कारण यह मान लिया गया है कि इसके रचयिता अन्य कोई पतञ्जलि हैं एवं उनकी तिथि ईसवी चौधी शताब्दी से पूर्व की नहीं हो सकती । गम्भवतः सांख्यकारिका की महान लोक प्रियता ने योगसूत्र लिखने की प्रेरणा दी हो। विज्ञानवाद तथा योगाचार मत का ३०० ई० के लगभग उदित होना इस बात की पुष्टि करता है कि योगसूत्र इसके बाद का है, क्योंकि योग का इनमें बहुत बड़ा स्थान है ।
योगदर्शन की पदार्थप्रणाली में सांख्य के २५ तत्त्व स्वीकृत हैं तथा वह ईश्वर को इनमें २६ वें तत्त्व के तौर पर जोड़ता है । इसलिए यह 'सेश्वर सांख्य' कहलाता है, जबकि कपिल सांख्य को 'निरीश्वर सांख्य' कहते हैं । किन्तु योग की विशेषता इन तत्वों पर माथापच्ची न करते हुए साधना प्रणाली का अभ्यास तथा ईश्वरभक्ति है, क्योंकि इसका लक्ष्य आत्मा को कैवल्य पद प्राप्त कराना है ।
योगसाधक सतत अभ्यास करते हुए वित्त की क्रियाओं पर सम्पूर्ण स्वामित्व प्राप्त कर लेता है। चित्तवृत्तियों का निरोध ही योग है ( योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः) । इसके साधन है नैतिक आचरण, तपश्चरण, शारीरिक तथा मानसिक व्यायाम, फिर केन्द्रित ध्यान तथा गहरा चिन्तन | इनके द्वारा प्रकृति एवं आत्मा का अन्तर्ज्ञान एवं अन्त में कैवल्य प्राप्त होता है। अष्टाङ्ग योग के आठ अंग निम्नांकित है(१) यम (२) नियम (३) आसन (४) प्राणायाम (५) प्रत्याहार (६) धारणा (७) ध्यान और (८) समाधि इसको राजयोग भी कहते हैं। यह सभी मनुष्यों के लिए उन्मुक्त
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