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यातुधान-यामुनाचार्य
याज्ञिकी अथवा नारायणीय उपनिषद् में मूर्तिमान् ब्रह्मतत्त्व का विवरण है। शङ्कराचार्य ने इसका भाष्य लिखा है। यातुधान-मनुष्येतर उपद्रवी योनियों में राक्षस मुख्य हैं, इनमें यातु ( माया, छल-छद्म ) अधिक था इसलिए इनको यातुधान कहते थे । ऋग्वेद में इन्हें यज्ञों में बाधा डालने वाला तथा पवित्रात्माओं को कष्ट पहुँचाने वाला कहा गया है । इनके पास प्रभूत शक्ति होती है एवं रात को जब ये घूमते हैं (रात्रिञ्चर ) तो अपने क्रव्य ( शिकार ) को खाते हैं, बड़े ही घृणित आकार के होते हैं तथा नाना रूप ग्रहण करने की सामर्थ्य रखते हैं। ऋग्वेद में रक्षस् एवं यातुधान में अन्तर किया गया है, किन्तु परवर्ती साहित्य में दोनों पर्याय हैं । ये दोनों प्रारम्भिक अवस्था में यक्षों के समकक्ष थे। किन्तु रामायण-महाभारत की रचना के पश्चात् राक्षस अधिक प्रसिद्ध हुए। राक्षसों का राजा रावण राम का प्रबल शत्रु था। महाभारत में भीम का पुत्र घटोत्कच राक्षस है, जो पाण्डवों की ओर से युद्ध करता है। विभीषण, रावण का भाई तथा भीमपुत्र घटो- त्कच भले राक्षसों के उदाहरण हैं, जो यह सिद्ध करते हैं कि असुरों की तरह ही राक्षस भी सर्वथा भय की वस्तु नहीं होते थे। यात्रा ( रथयात्रा या रथोत्सव )-प्राचीन काल से ही
देवताओं की यात्राएँ बड़ी प्रसिद्ध है। कालप्रिय नाथ की यात्रा के अवसर पर भवभूति का प्रसिद्ध नाटक 'महावीरचरित' मञ्च पर खेला गया था। 'यात्रातत्त्व' नामक ग्रंथ रघुनन्दन द्वारा बंगाल में रचा गया था। इस ग्रन्थ में विष्णु ( जगन्नाथजी) सम्बन्धी बारह उत्सव वर्णित हैं। मुरारि कवि द्वारा रचित 'अनर्घराघव' नाटक पुरुषोत्तमयात्रा के समय ही रंगमंच पर खेला गया था। देवयात्राविधि के लिए दे० कृत्यकल्पतरु, पृ० १७८-८१ (ब्रह्मपुराण से)। यादवगिरिमाहात्म्य-नारद पुराण में उद्धृत यह अंश दत्तात्रेय सम्प्रदाय ( मानभाउ सम्प्रदाय ) का वर्णन करता है। यादवप्रकाश-रामानुज स्वामी के प्रारम्भिक दार्शनिक शिक्षागुरु । यादवप्रकाश शङ्कर के अद्वैतमत को मानने वाले थे और रामानुज विशिष्टाद्वैत को । अतएव गुरु-शिष्य में अनेक
बार विवाद हुआ करता था। अन्त में रामानुज ने गुरु पर विजय प्राप्त की और उन्हें वैष्णव मतावलम्बी बना लिया । इनका लिखा हुआ वेदान्तसूत्र का यादवभाष्य अब दुर्लभ है। धीवैष्णव सम्प्रदाय के संन्यासियों पर इनका अन्य ग्रन्थ यतिधर्मसमुच्चय है । इनका अन्य नाम गोविन्द जिय भी था। स्थितिकाल ११वीं शताब्दी था। ये कांची नगरी के रहने वाले थे। यान-(१) साधक के परलोक प्रयाण के दो मार्ग या प्रकार । उपनिषदों और गीता (८,२३-२८) में इनका विवेचन भली प्रकार हुआ है।
(२) बौद्ध उपासकों में तीन साधनामार्ग प्रचलित हैं : हीनयान, महायान और वज्रयान ।
महायान के श्रेष्ठ तन्त्र 'तथागतगुह्यक' से पता लगता है कि रुद्रयामल में जिसे वामाचार या कौलाचार कहा गया है, वही महायानियों का अनुष्ठेय आचार है। इसी सम्प्रदाय से कालचक्रयान या कालोत्तर महायान तथा वज्रयान की उत्पत्ति हई। नेपाल के सभी शाक्त बौद्ध वज्रयान सम्प्रदाय के अनुयायी हैं । यामल-तन्त्र शास्त्र तीन भागों में विभक्त है : आगम, यामल और मुख्य । जिसमें सृष्टितत्त्व, ज्योतिष, नित्यकृत्यक्रम, सूत्र, वर्ण भेद और युगधर्म का वर्णन हो उसे यामल कहते हैं। वास्तव में यामल शब्द यमल से बना है जिसका अर्थ 'जोड़ा' होता है ( अर्थात् देवता तथा उसकी शक्ति का परस्पर रहस्यसंवाद)। यामलतन्त्र आठ हैं, जो ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र, लक्ष्मी, उमा, स्कन्द, गणेश तथा ग्रहपरक हैं। यामुनाचार्य-श्रीवैष्णव सम्प्रदाय के एक प्रधान आचार्य नाथमुनि थे (९६५ वि० )। उनके पुत्र ईश्वरमुनि तथा इनके पुत्र यामुनाचार्य थे। ईश्वरमुनि की मृत्यु बहुत ही अल्पावस्था में हो गयी। यामुनाचार्य तब दस वर्ष के बालक थे। इनका जन्स १०१० वि० में वीरनारायणपुर या मदुरा में हुआ था। ये अपने गुरु श्रीमद्भाष्याचार्य से शिक्षा लेने तथा १२ वर्ष की अवस्था में ही स्वभाव की मधुरता एवं बुद्धि की प्रखरता के बल पर पांडय राज्य के प्रभावशाली व्यक्ति मान लिये गये। नाथमुनि पुत्र के मृत्युशोक से संन्यासी हो रङ्गनाथ के मन्दिर में रहने लगे थे । फिर भी वे अपने पौत्र का हितचिन्तन करते रहते थे। मृत्यु के समय उन्होंने अपने शिष्य राममिश्र से कहा
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