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यमुनास्नानतर्पण-याज्ञिको
भागवत पुराण में वर्णित कृष्ण के सम्पर्क के कारण याज्ञवल्क्य आश्रम-बिहार प्रदेश के दरभंगा-सीतामढ़ी मार्ग इसका महत्त्व बहुत बढ़ गया है, जिस प्रकार राम के के बीच रमौल ग्राम पड़ता है। यहाँ शिवमन्दिर है, इसी सम्पर्क से सरयू नदी का ।
के पास गौतमकुण्ड और वटवृक्षों का वन है। यहाँ पर यमुनास्नानतर्पण-इस व्रत के अनुसार यमुनाजल में खड़े महर्षि याज्ञवल्क्य का आश्रम बतलाया जाता है। होकर यमराज के भिन्न-भिन्न नामों के साथ तिलमिश्रित जल याज्ञवल्क्यधर्मशास्त्र-धर्मशास्त्र (विधि) में मानवधर्मकी तीन-तीन अञ्जलियों से उनका तर्पण करना चाहिए। शास्त्र ( मनुस्मति ) के पश्चात् दूसरा स्थान याज्ञवल्क्ययाग-(१) देवता को सामग्री अर्पण करना, अर्थात् यज्ञकर्म । धर्मशास्त्र का है। इसका दूसरा नाम है याज्ञवल्क्यस्मति । इसमें अग्नि, जल, देवमूर्ति, अतिथि अथवा अन्तरात्मा को दे० 'याज्ञवल्क्यस्मति' । उपहार चढ़ाया जाता है । ब्राह्मण ग्रन्थों में कई प्रकार के
याज्ञवल्क्यस्मृति-मानव धर्मशास्त्र (मनुस्मृति) अन्य सभी अग्निसाध्य यागों का वर्णन है। (२) इसी प्रकार वैष्णव
स्मृतियों का आधार है। इसके बाद दूसरा स्थान याज्ञउपासक किसी प्रथम गुरु का चुनाव कर उससे दीक्षा लेता
वल्क्यस्मृति का है । इस स्मृति में तीन अध्याय हैं; आचार, है। दीक्षान्तर्गत पाँच कृत्य हैं : (१) ताप ( साम्प्रदायिक
व्यवहार और प्रायश्चित्त । इनमें निम्नांकित विषय हैं: चिह्न का शरीर पर अङ्कन ) (२) पुण्ड्र ( साम्प्रदायिक चिह्न को ललाट आदि पर चन्दन से बनाना ) (३) नाम
(१) आचाराध्याय-वर्णाश्रमप्रकरण, स्नातक · व्रत ( अपना साम्प्रदायिक नाम ग्रहण करना ) (४) मन्त्र
प्रकरण, भक्ष्याभक्ष्य प्रकरण, द्रव्यशुद्धि प्रकरण, दान ( आराध्य देव का मन्त्र ग्रहण करना ) एवं (५) याग ।
प्रकरण । ( देवता की पूजा )।
(२) व्यवहाराध्याय-प्रतिभू प्रकरण, ऋणादान प्रकयाज्ञवल्क्य-(१) यजुर्वेद के शाखाप्रवर्तक ऋषि । इनका
रण, निक्षेपादि प्रकरण, साक्षिप्रकरण, लेख्यप्रकरण, दिव्य उल्लेख शतपथ ब्राह्मण में यज्ञों के प्रश्न पर एक
प्रकरण, दायभाग, सीमाविवाद, स्वामिपाल विवाद, महान् अधिकारी विद्वान के रूप में मिलता है। बहदा
अस्वामिविक्रय, दत्ताप्रदानिक, क्रीतानुशय, संविद्व्यतिक्रम, रण्यक उपनिषद् में इन्हें दर्शन का अधिकारी विद्वान
वेतनादान, द्यूतसमाह्वय, वाक्पारुष्य, दण्डपारुष्य, साहस, माना गया है । ये उद्दालक आरुणि के शिष्य थे जिन्हें एक विक्रीयासम्प्रदान, सम्भूय समुत्थान, स्तेय एवं स्त्रीसंग्रह विवाद में इन्होंने हरा दिया था। बृहदारण्यक उपनिषद्
प्रकरण । में इनकी दो पत्नियाँ-मैत्रेयी तथा कात्यायनी का उल्लेख है।
(३) प्रायश्चित्ताध्याय-अशौच, आपत्कर्म, वानप्रस्थ, साथ हो यहाँ याज्ञवल्क्यकृत वाजसनेयी शाखा ( शुक्ल
यति, अध्यात्म, ब्रह्महत्या प्रायश्चित्त, सुरापान प्रायश्चित्त, यजर्वेद ) का भी उल्लेख है। आश्चर्य की बात है कि
सुवर्णस्तेय प्रायश्चित्त, स्त्रीवध प्रायश्चित्त एवं रहस्ययाज्ञवल्क्य शतपथ ब्राह्मण तथा शाङ्खायन आरण्यक को
प्रायश्चित्त प्रकरण । छोड़कर किसी भी वैदिक ग्रन्थ में उल्लिखित नहीं हैं । कहा जाता है कि ये विदेह के रहने वाले थे, परन्तु जनक
याज्ञवल्क्यस्मृति पर कई भाष्य और टीकाएँ लिखी की सभा में इनकी उपस्थिति होते हुए भी उद्दालक से
गयी हैं, जिनमें 'मिताक्षरा' सबसे प्रसिद्ध है।
हिन्दू विधि में मिताक्षरा का सिद्धान्त बंगाल को छोड़सम्बन्ध (जो कुरु-पश्चाल के थे ) होने के कारण इनका
कर समग्र देश में माना जाता रहा है। बंगाल में 'दायविदेहवासी होना संदेहात्मक लगता है।
भाग' मान्य रहा है। (२) स्मृतिकार के रूप में भी याज्ञवल्क्य प्रसिद्ध हैं। इनके नाम से प्रख्यात 'याज्ञवल्क्यस्मृति' धर्मशास्त्र का याज्ञिको-तैत्तिरीय आरण्यक का दसवाँ प्रपाठक याज्ञिकी एक प्रामाणिक ग्रन्थ है। स्पष्टतः यह परवर्ती ग्रन्थ है। या नारायणीयोपनिषद् के नाम से विख्यात है। सायणाइसका विकास याज्ञवल्क्य के धर्मशास्त्रीय सम्प्रदाय में हुआ। चार्य ने याज्ञिकी उपनिषद् पर भाष्य रचा है और विज्ञान्यायव्यवस्था एवं उत्तराधिकार के सम्बन्ध में हिन्दू नात्मा ने इस पर स्वतंत्र वृत्ति और 'वेदविभूषण' नाम विधि के अन्तर्गत इस स्मृति का मुख्य स्थान है।
की अलग व्याख्या लिखी है।
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