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यक्ष-यजुर्वेद
तन्त्रशास्त्र में इसके अनेक नाम बतलाये गये हैं :
यो वाणी वसुधा वायुविकृतिः पुरुषोत्तमः । युगान्तः श्वसनः शीघ्रो धूमाचिः प्राणिसेवकः ।। शङ्खाभ्रमो जटी लीला वायुवेगी यशस्करी । सङ्कर्षणः क्षमा बाणो हृदयं कपिला प्रभा ।। आग्नेय आपकस्त्यागो होमो यानं प्रभा मखम् । चण्डः सर्वेश्वरी धूमश्चामुण्डा सुमुखेश्वरी ।। त्वगात्मा मलयो माता हंसिनी भृङ्गिनायकः । तेनमः शोधको मीनो धनिष्ठानङ्गवेदिनी ।।
मेष्टः सोमः पक्तिनामा पापहा प्राणसंज्ञकः ।। यक्ष-एक अर्ध देवयोनि । यक्ष (नपुंसकलिङ्ग) का उल्लेख ऋग्वेद में हुआ है। उसका अर्थ है 'जादू की शक्ति अतएव सम्भवतः यक्ष का अर्थ जादू की शक्तिवाला होगा और निस्सन्देह इसका अर्थ यक्षिणी है । यक्षों की प्रारम्भिक धारणा ठीक वही थी जो पीछे विद्याधरों की हई। यक्षों को राक्षसों के निकट माना जाता है, यद्यपि वे मनुष्यों के विरोधा नहीं होते, जैसे राक्षस होते हैं। (अनुदार यक्ष एवं उदार राक्षस के उदाहरण भी पाये जाते हैं, किन्तु यह उनका साधारण धर्म नहीं है।) यक्ष तथा राक्षस दोनों ही 'पुण्यजन' (अथर्ववेद में कुबेर की प्रजा का नाम) कहलाते हैं। माना गया है कि प्रारम्भ में दो प्रकार के राक्षस होते थे; एक जो रक्षा करते थे वे यक्ष कहलाये तथा दूसरे यज्ञों में बाधा उपस्थित करने वाले राक्षस कहलाये । यक्षों के राजा कुबेर उत्तर के दिक्पाल तथा स्वर्ग के कोषाध्यक्ष कहलाते हैं । यक्षकर्दम-एक प्रकार का अङ्गराग, जो यक्षों को अत्यन्त प्रिय था। इसका निर्माण पाँच सुगन्धित द्रव्यों के सम्मिश्रण से होता है। धार्मिक उत्सवों और देवकार्यों में इसका विशेष उपयोग होता है । इसके घटक द्रव्य केसर, कस्तूरी, कपूर, कक्कोल और अगरु चन्दन के साथ घिसकर मिलाये जाते हैं :
कुंकुमागुरु कस्तूरी कर्पूरं चन्दनं तथा ।
महासुगन्धमित्युक्तं नामतो यक्षकर्दमः ॥ यच-एक कल्पित भूतयोनि । संभवतः 'यक्ष' का ही यह एक प्राकृत रूप है । दरद प्राचीन आर्य जाति है जो गिलगित के इर्द-गिर्द कश्मीर एवं हिन्दुकुश के मध्य निवास करती है । यह दानवों में विश्वास करती है तथा उन्हें 'यच' कहती है । यच बड़े आकार के होते है, प्रत्येक के एक ही
आँख ललाट के मध्य होती है। जब वे मानववेश धारण करते हैं तो उन्हें उनके उलटे पैरों से पहचाना जा सकता है। वे केवल रात को ही चलते हैं तथा पहाड़ों पर राज्य करते हुए मनुष्यों को खेती को हानि पहुँचाते हैं । वे प्रायः मनुष्यों को अपनी दरारों में खींच ले जाते हैं । किन्तु लोगों के इस्लाम धर्म ग्रहण करने से उन्होंने उन पर से अपना स्वामित्व भाव त्याग दिया है तथा अब कभी-कभी ही मनुष्यों को परेशान करते हैं। वे सभी क्रूर नहीं होते, विवाह के अवसर पर वे मनुष्यों से धन उधार लेते है तथा उसे धीरे-धीरे ऋण देनेवाले की अज्ञात अवस्था में ही पूरा चुका देते हैं । ऐसे अवसर पर वे मनुष्यों पर दयाभाव रखते हैं। इनकी परछाई यदि मनुष्य पर पड़े तो वह पागल हो जाता है। यजमान-यज्ञ करनेवाला। कोई भी व्यक्ति, जो स्वयं यज्ञ करता है, यज्ञ का व्ययभार वहन करता है अथवा ऋत्विक् या पुरोहित की दक्षिणा चकाता है, यजमान कहलाता है। सामान्य अर्थ में प्रश्रयदाता, आतिथेय, कुलपति अथवा किसी भी सम्पन्न व्यक्ति को यजमान कहते है । यजुर्योतिष-संस्कारों एवं यज्ञों की क्रियाएँ निश्चित मुहतों
पर निश्चित समयों और निश्चित अवधियों के अन्दर होनी चाहिए। मुहूर्त, समय एवं अवधि का निर्णय करने के लिए एक मात्र ज्योतिष शास्त्र का अवलम्ब है । ज्योतिवेदांग पर अति प्राचीन तीन पुस्तकें मिलती है-- ऋग्ज्योतिष, यजुर्योतिष और अथर्वज्योतिष । 'यजुर्योतिष' इनमें पश्चात्कालिक रचना कही जाती है । यजर्वेद-यह द्वितीय वेद है। इसकी रचना ऋग्वेदीय ऋचाओं के मिश्रण से हुई है, किन्तु इसमें मुख्यतः नये गद्य भाग भी हैं। इसके अनेक मन्त्रों में ऋग्वेद से अन्तर पाया जाता है, जो परम्परागत ग्रन्थ के प्रारम्भिक अन्तर अथवा यजुः के यजनप्रयोगों के कारण हो गया है। यह पद्धतिग्रन्थ है जो पौरोहित्य प्रणाली में यज्ञक्रिया को सम्पन्न करने के लिए संगृहीत हुआ था। पद्धतिग्रन्थ होने के कारण यह अध्ययन का सुप्रचलित विषय बन गया । इसकी अनेक शाखाओं में से आजकल दो संहिताएँ मिलती हैं; प्रथम तैत्तिरीय तथा द्वितीय वाजसनेयी। इन्हें कृष्ण एवं शुक्ल यजुर्वेदीय संहिता भी कहते हैं। तैत्तिरीय संहिता अधिक प्राचीन है । दोनों में सामग्री प्रायः एक है,
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