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मोक्षकारणतावाद य
स्वीकार की गयी है जिसमें नित्य भगवान् की अत्यन्त सन्निधि प्राप्त होती है ।
मोक्षकारणतावाद - अनन्ताचार्यकृत एक ग्रन्थ का नाम । मोक्षधर्म - ( १ ) मोक्ष प्राप्ति के लिए आवश्यक साधना अथवा धार्मिक कृत्यों को मोक्षधर्म कहा जाता है।
( २ ) महाभारत के बारहवें पर्व ( शान्तिपर्व) के अन्तगंत मोक्षधर्म पर्वाच्याय है। इसके उत्तरार्द्ध में कृष्ण की शिक्षाएँ संकलित हैं । इसमें कुछ ऐसे स्थल हैं जो अत्युतम एवं मौलिक हैं । मोक्षधर्म के समान ही महाभारत के पाँचवें 'उद्योगपर्व' छठे ( भीष्मपर्व ) एवं चौदहवें 'अश्वमेधपर्व के कुछ उपदेशपूर्ण अंश हैं, जो क्रमशः सनत्सुजातीय, भगवद्गीता और अनुगीता कहलाते हैं । मोक्षधर्म तथा ये तीनों अपने स्वतन्त्र रूप में पृथक् ग्रन्थ हैं ।
मोक्षधर्म पर्वाध्याय - दे० 'मोक्षधर्म' | मोक्षशास्त्र इसके अन्तर्गत वेदों का ज्ञानकाण्ड और उपा सनाकाण्ड आते हैं। समस्त दर्शन तथा सम्पूर्ण मोक्ष साहित्य, योगवासिष्ठ आदि इसी में गिने जाते हैं । विशेष विवरणार्थ दे० 'महाविद्याएँ' ।
मौन (१) मन की एकाग्रता के लिए एक धार्मिक अथवा यौगिक साधना, जिसमें वचन का संयम किया जाता है।
(२) मुनि के वंशज मौन अनोवीन का पितृबोधक नाम, जिसका उद्धरण कौषीतकि ब्राह्मण (२३.५) में मिलता है।
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मौन व्रत - ( १ ) श्रावण मास की समाप्ति के बाद भाद्रपद प्रतिपदा से सोलह दिनों तक इस व्रत का अनुष्ठान करना चाहिए तो दुर्वांकुरों को लेकर उनमें सोलह ग्रन्थियाँ लगाकर दाहिने हाथ में (महिलाएँ बायें हाथ में) रखे । सोलहवें दिन जल लाने, गेहूँ पीसने, नैवेद्य तैयार करने से लेकर भोजन ग्रहण करने तक मौन धारण करना चाहिए। शिवप्रतिमा को जल, दुग्ध, दधि, घृत, मधु शर्करा से स्नान कराकर पूजन करना चाहिए। तदनन्तर पुष्पादि अर्पण करना चाहिए तथा यह प्रर्थना करनी चाहिए "शिवः प्रसीदतु म । इस आचरण से सन्तानोपलब्धि होती है तथा सारी कामनाएँ पूरी होती हैं ।
(२) मौन व्रत का अभ्यास आठ छः अथवा तीन मास तक या एक मास, आधा मास अथवा १२, ६, ३ दिन तक या एक ही दिन तक किया जाय मौन की शपथ लेने से, ६७
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कहा जाता है कि सर्व कामनाएँ तथा संकल्प पूरे होते हैं। (मौनं सर्वार्थसाधनम् ) । मौन व्रत धारण करने वाले को भोजन करते समय भी 'हम्' जैसा शब्द तक नहीं करना चाहिए। उसे मनसा, वाचा, कर्मणा किसी भी प्रकार की हिंसा न करनी चाहिए। व्रत की समाप्ति के उपरान्त चन्दन का शिवलिङ्ग बनवाकर गन्धाक्षतादि से पूजन करना चाहिए। तदनन्तर सुवर्ण का घण्टा तथा अन्यान्य धातुओं के बने हुए घण्टे घण्टियाँ मन्दिर में सभी दिशाओं में लटका देने चाहिए। ब्राह्मणों तथा शिवभक्तों को इस अवसर पर स्वादिष्ठ भोजन कराना चाहिए। व्रती को किसी ताम्रपान में शिवलिङ्ग रखकर उसे सिर पर धारण कर सड़कों पर होते हुए शिवमन्दिर तक जाकर मन्दिर की प्रतिमा के दक्षिण पार्श्व में लिङ्ग स्थापित करके उसकी पुनः पूजा करनी चाहिए। इससे व्रती शिवलोक प्राप्त कर लेता है ।
मौसल पर्व -- यह महाभारत का १६वाँ पर्व है । इसमें यदुवंश का नाश, अर्जुन द्वारा यादवशून्य द्वारका को देखकर दुखी होना, अपने मामा वसुदेव का सत्कारपूर्वक सुरापान, सभा में यदुवंशी वीरों का आत्यन्तिक विनाश देखना, राम और कृष्णादि प्रधान प्रधान यदुवंशियों का शरीरसंस्कार करके द्वारका से बाल, वृद्ध, वनिताओं को लाते समय राह में घोर विपत्ति में पड़ जाना, गाण्डीव का पराभव तथा सब दिव्यास्त्रों की विफलता, यादव कुलाङ्ग नाओं का अपहरण, पराक्रम की अनित्यता देख अत्यन्त दुःखी हो युधिष्ठिर के पास लौटना एवं व्यास के वाक्यानुसार संन्यास लेने की 'अभिलाषा करना मौसल पर्व के विषय हैं। इसमें ८ अध्याय एवं ३२० श्लोक हैं। इस पर्व में निर्वेद और संन्यास के उत्तम उपदेश हैं । दे० 'महाभारत' ।
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य-अन्तःस्थ वर्णों का प्रथम अक्षर कामधेनुतन्त्र में इसका स्वरूप इस प्रकार बतलाया गया है :
कारं शृणु नाङ्ग चतुष्कोणमयं सदा । पलालधूमसंका स्वयं परमकुण्डली | पञ्चप्राणमयं वर्णं पञ्चदेवमयं सदा । विशक्तिसहितं वर्णं विविन्दुसहितं तथा ॥ प्रणमामि सदा वर्णं मूर्तिमन्मोक्षमव्ययम् ॥
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