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यजुष (स्)-यज्ञ
किन्तु क्रम में अन्तर है । शुक्ल यजुर्वेदसंहिता अधिक क्रमबद्ध इस समस्या का अन्य अधिक बोधगम्य उत्तर यह है है तथा इसमें ऐसे अंश है जो कृष्ण यजुर्वेद में नहीं है। कि वाजसनेय याज्ञवल्क्य का पितृ (गुरु)बोधक नाम है,
क्योंकि वे 'वाजसन' ऋषि के वंशज थे तथा तैत्तिरीय तैत्तिरीय संहिता अथवा कृष्ण यजुर्वेद ७ काण्डों, ४४
तित्तिर से बना है जो यास्क के एक शिष्य का नाम है । प्रश्नों या अध्यायों, ६५१ अनुवाकों अथवा प्रकरणों तथा
वेबर इस वेद के सबसे बड़े आधुनिक विद्वान् माने जाते हैं। २१९८ कण्डिकाओं (मन्त्रों) मे विभक्त है। एक कण्डिका
उनका मत है कि कितनी भी यह कथा अतर्कपूर्ण हो किन्तु में नियमतः ५५ शब्द होते हैं। वाजसनेयी संहिता ४०
इसके भीतर एक सत्य छिपा हुआ है; कृष्ण यजुर्वेद विभिन्न अध्यायों, ३०३ अनुवाकों एवं १९७५ कण्डिकाओं में
गद्य-पद्य शैलियों का अपरिपक्व एवं क्रमहीन ग्रन्थ है। विभक्त है।
गोल्डस्टूकर का मत है कि इसका ऐसा अनगढ़ रूप इस इस वेद का विभाजन दो संहिताओं में क्योंकर हआ,
कारण है कि इसमें मन्त्र एवं ब्राह्मण भाग स्पष्टता से इसका ठीक उत्तर ज्ञात नहीं है। परवर्ती काल में इस
अलग नहीं है, जैसा कि अन्य वेदों में है। ब्राह्मणों से नाम की व्याख्या करने के लिए एक कथा का आविष्कार
सम्बन्धित स्तुतियाँ तथा सामग्री यहाँ मन्त्रों से मिल-जल हुआ, जो विष्णु तथा वायु पुराणों में इस प्रकार कही
___ गयी है । यह दोष शुक्ल यजुर्वेद में दूर हो गया है । गयी है :
यजुषस्)-पद्यात्मक ऋचाओं से भिन्न गद्यात्मक वेदमन्त्र।
इसका शाब्दिक अर्थ है यज्ञ, पूजा, श्रद्धा, आदर आदि । वेदव्यास के शिष्य वैशम्पायन ने अपने २७ शिष्यों को।
वेद का वह भाग, जिसका सम्बन्ध यज्ञ, पूजा आदि से यजुर्वेद पढ़ाया । शिष्यों में सबसे मेधावी याज्ञवल्क्य
है यजुप (स) कहलाता है। यजुर्वेद का यह नाम इसलिए थे। इधर वैशम्पायन के साथ एक दुःखपूर्ण घटना घटी है कि इसके मन्त्र यज्ञक्रियाओं के अवसर पर उच्चरित कि उनकी भगिनी की सन्तान उनकी घातक चोट से मर होते हैं। गयी । पश्चात् उन्होंने अपने शिष्यों को इसके प्रायश्चित्त यज्ञ-यजन, पूजन, संमिलित विचार, वस्तुओं का वितरण । के लिए यज्ञ करने को बुलाया । याज्ञवल्क्य ने उन अकु- बदले के कार्य, आहुति, बलि, चढ़ावा, अर्प आदि के अर्थ शल ब्राह्मणों का साथ देने से इन्कार कर दिया तथा में भी यह शब्द व्यवहृत होता है। यजुर्वेद, ब्राह्मण ग्रन्थों परस्पर झगड़ा आरम्भ हो गया। गुरु ने याज्ञवल्क्य को और श्रौतसूत्रों में यज्ञविधि का बहुत विस्तार हुआ है। जो विद्या सिखायी थी, उसे लौटाने को कहा। शिष्य ने यज्ञ वैदिक विधानों में प्रधान धार्मिक कार्य है। यह इस उतनी ही शीघ्रता से यजुः ग्रन्थ को वमन कर दिया जिसे संसार तथा स्वर्ग दोनों में दृश्य तथा अदृश्य पर, चेतन उसने पढ़ा था । विद्या के कण भूमि पर कृष्ण वर्ण के रक्त तथा अचेतन वस्तुओं पर अधिकार पाने का साधन है। से सने हुए गिर पड़े । दूसरे शिष्यों ने तित्तिर बनकर उस जो इसका ठीक प्रयोग जानते हैं तथा विधिवत् इसका उगले हुए ग्रन्थ को चुग लिया। इस प्रकार वेद का वह सम्पादन करते हैं, वास्तव में वे इस संसार के स्वामी हैं। भाग जो इस प्रकार ग्रहण किया गया, नाम से तैत्तिरीय तथा यज्ञ को एक प्रकार का ऐसा यन्त्र समझना चाहिए जिसके रंग से कृष्ण हो गया । याज्ञवल्क्य खिन्न होकर लौट गये और
सभी पुर्जे ठीक-ठीक स्थान पर बैठे हों; या यह ऐसी सूर्य की घोर तपस्या आरम्भ की और उनसे वह यजुः ग्रन्थ
जंजीर है जिसकी एक भी कड़ी कम न हो; या यह ऐसी प्राप्त किया जो उनके गुरु को भी अज्ञात था। सूर्य ने वाजी
सीढ़ी है जिससे स्वर्गारोहण किया जा सकता है; या यह ( अश्व ) का वेश धारण कर याज्ञवल्क्य को उक्त ग्रन्थ एक व्यक्तित्व है जिसमें सारे मानवीय गुण हैं। दिया था। अतएव वेद के इस भाग के पुरोहित 'वाजिन्' यज्ञ सृष्टि के आदि से चला आ रहा है। सृष्टि की कहलाते हैं, जबकि संहिता वाजसनेयी तथा शुक्ल (श्वेत) उत्पत्ति यज्ञ का फल कही जाती है जिसे ब्रह्मा ने किया कहलाती है, क्योंकि यह सूर्य ने दी थी। याज्ञवल्क्य ने था। होमात्मक यज्ञ का विस्तार आहवनीय अग्नि से यह वेद सूर्य से प्राप्त किया, इसका उल्लेख कात्यायन ने होता है, जिसमें यज्ञ की सभी सामग्री छोड़कर स्वर्ग भेजी भी किया है।
जाती है-मानो यज्ञ एक निसेनी का निर्माण करता है,
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