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मित्र-भू-काश्यप-मीमांसा शास्त्र
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करता था। सत्य अन्तप्रकाश है तथा प्रकाश बाहरी (२) मिश्र का अर्थ 'श्रेष्ठ' भी होता है । 'आर्यमिश्रा' सत्य है। यह नहीं जान पड़ता कि मित्र में कौन सा श्रेष्ठ लोगों के लिए सम्बोधन के रूप में संस्कृत ग्रन्थों में विचार पहले प्रविष्ट हुआ । सम्भवतः उसमें नैतिक गुणों प्रयुक्त होता है। की ही प्राथमिकता ज्ञात होती है।
मिहिर-ईरानी देवता "मिथ्र" को ही संस्कृत में मिहिर मित्र का भौतिक रूप प्रकाश था जो कुछ आगे-पीछे कहते हैं। दूसरी शताब्दी ई० पू० में उत्तर भारत में मान्य हुआ । कुछ विद्वान् मित्र की एकता सूर्य से स्थापित
इस शब्द का प्रवेश हुआ । क्रमशः आगे चलकर भारतीय करते हैं और इस प्रकार मित्र एवं वरुण से 'सूर्यप्रकाश सौर सम्प्रदाय में यह पूजनीय रूप से समाविष्ट हो गया। एवं उसे घेरने वाला वृत्ताकार आकाश' अर्थ को सम्भवतः वास्तव में वैदिक 'मित्र' देवता प्राचीन काल में ईरान स्थापना होती है।
के पारसियों में भी मिथ्र नाम से पूज्य था। आगे चलकर तीसरी मान्यता में मित्र युद्ध का देवता है (मिह्यश्त मिथ्र का परिवर्तित रूप मिहिर भारत में भी प्रचलित हो के अनुसार) । बाद में मिथ्रवाद या मिथ्र की पूजा रोमन गया । मिहिर और मित्र दोनों आदित्य के पर्याय माने साम्राज्य में फैली । योद्धा, देवता, स्पष्टवादिता, ईमानदारी सीथे मार्ग का अनुसरण आदि सैनिकों के गुणों के साथ वह मोनापंथ-सिक्खों के 'सहिजधारी' और 'सिंह' दो विभाग युद्ध का देवता माना जाने लगा। मिथ्रवाद का काल हैं। सहिजधारियों के भी अनेक पन्थ हैं। इनमें एक है पश्चिमी देशों में १०० से ३०० ई० तक रहा। एक मीना पन्थ । इसे गुरु रामदास के पुत्र पृथ्वीचन्द ने समय था जब यह कहना कठिन था कि मिथ्रवाद तथा चलाया था । दे० 'सिक्ख सम्प्रदाय' । रवीष्टिवाद में से कौन विजयी होगा।
मीमांसक-मीमांसा शास्त्र के विद्वानों को मीमांसक कहते मित्र-भू-काश्यप-कश्यप का वंशज । यह वंश ब्राह्मण में । हैं। कर्म मीमांसा दर्शन की स्थापना इसके लिए हई थी उद्धृत एक आचार्य का नाम है जो विभाण्डक काश्यप का कि श्रोत तथा गृह्यसूत्रों में बतायी हुई सारी बातों का शिष्य था ।
पालन सन्देहरहित विश्वासपूर्ण नियमों के अनुसार हो । मित्रसप्तमी-मार्गशीर्ष शुक्ल सप्तमी मित्रसप्तमी कह- बड़े बड़े श्रौत यज्ञों के अवसरों पर उस उद्देश्य की रक्षा लाती है । यह तिथिव्रत है। मित्र (सूर्य) इसके देवता हैं। के लिए विद्वान् मीमांसक निर्देशार्थ उपस्थित रहते थे। षष्ठी को मित्र की प्रतिमा को उसी प्रकार स्नान कराना मीमांसा-दे० 'पूर्वमीमांसा'। चाहिए जैसे कार्तिक शुक्ल ११ को विष्णु भगवान् की मीमांसान्यायप्रकाश-आपदेव सुप्रसिद्ध मीमांसक विद्वान् प्रतिमा को कराया जाता है। सप्तमी को उपवास (फलों थे। उनका 'मीमांसान्यायप्रकाश' पूर्वमीमांसा का का सेवन किया जा सकता है) तथा रात्रि को जागरण प्रारम्भिक और प्रामाणिक प्रकरण ग्रन्थ है। रचनाकाल करना चाहिए। विभिन्न प्रकार के पुष्पों तथा स्वादिष्ट १६३० ई० है । इसे आपदेवी भी कहते हैं। सरल होने खाद्यान्नों से सूर्य का पूजन करना चाहिए। निर्धनों के कारण इसका प्रचार तथा प्रयोग प्रचुर हुआ है। अनाथों तथा ब्राह्मणों को भोजन कराना चाहिए । अष्टमी मोमांसावृत्ति-उपवर्ष नामक वृत्तिकार द्वारा पूर्व और को अभिनेताओं तथा नर्तकों को रुपयों का वितरण करना उत्तर दोनों ही मीमांसा शास्त्रों पर वृत्ति ग्रन्थ लिखे गये चाहिए । दे० नीलमत पुराण, पु० ४६-४७ (श्लोक ५६४- थे । शङ्कराचार्य (ब. सू. ३.३.५३) कहते हैं कि उपवर्ष
ने अपनी मीमांसावृत्ति में कहीं-कहीं पर शारीरक सूत्र पर मिश्र-(१) संयुक्त अथवा मिला हुआ। मिश्र तन्त्र आठ
लिखित वृत्ति की बातों का उल्लेख किया है । ये उपवर्षाहैं । इन के दो गुण हैं: देवी की उपासना के सम्बन्ध में
चार्य शबरस्वामी से पहले हुए थे। शिक्षा देना, एवं पार्थिवसुख के साथ ही मक्ति का मार्ग मीमांसाशास्त्र-विशिष्टाद्वैतवादी वैष्णव आचार्यों के मत भी प्रदर्शित करना। इस प्रकार इनमें दो लक्ष्यों का से पूर्वोत्तर रूपात्मक मीमांसा शास्त्र एक ही है । वे मिश्रण है । इसके विपरीत समय या शुभ (उच्च) तन्त्र दोनों के सूत्रपाठों में प्रथम कर्म मीमांसा के 'अथातो केवल 'मुक्ति' का ही मार्गदर्शन कराते हैं।
धर्मजिज्ञासा' से लेकर ब्रह्म मीमांसा के 'अनावृत्तिः
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