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माहिष्मती ( माहेश्वर )-मांस
दक्षिणा देकर तथा तेरह ब्राह्मणों को वस्त्रों के जोड़े, आदि से अन्ततक अपने सूत्रों में किया है । इन प्रत्याहारों आसन, पात्र, छाता, खड़ाऊँ की जोड़ी प्रदान कर स्वयं से सूत्रों की रचनाओं का अत्यन्त लाघव हो गया है । व्रत को पारणा करनी चाहिए। विष्णु भगवान् की माहेश्वर सूत्र निम्नलिखित हैं : प्रतिमा किसी पर्यङ्क पर स्थापित कर उनको वस्त्रादि (१) उण । (२) ऋलुक । (३) ए ओङ् । (४) धारण कराने चाहिए। अपने गुरु को पर्यङ्क पर बैठाकर
ऐ औच् । (५) हयवरट् । (६) लण् । (७) बमङणनम् । ओढ़ने-बिछाने के वस्त्र दान में देने चाहिए। जिस स्थान प्रभा । (९) घढधष । (१०) जबगडदश् । (११) पर ऐसा व्रती तीस दिन निवास करता है वह पवित्र हो जाता।
खफछठथचटतम् । (१२) कपम् । ( १३ ) शषसर् । है । इस व्रत के आचरण से न केवल व्रती अपने आपको
(१४) हल् । बल्कि परिवार के अन्य सदस्यों को भी विष्णु लोक ले जाता है। यदि किसी प्रकार व्रत काल में व्रती मूछित हो
मांस-सजीव प्राणियों और निर्जीव फल आदि का भीतरी जाय तो उसे दुध, शुद्ध नवनीत, फलों का रस देना
कोमल द्रव्य ( गूदा ) जो छेदन-भेदन द्वारा खाने के काम चाहिए । ब्राह्मणों की आज्ञा से उपर्युक्त बस्तुओं को लेने
आता है । प्राणियों के मांस का उपयोग भक्षणार्थ हिंसक से व्रत खण्डित नहीं होता है।
पशु और असभ्य कोल-भील आदि लोगों में प्रचलित था।
शत्र वधाभिलाषी क्षत्रिय, सैनिक और राजा लोग भी माहिष्मती ( महेश्वर )-विख्यात शैव तीर्थ तथा नर्मदा
युद्ध शिक्षार्थ पशु वध करते हए मांस खाने लगते थे । तट का प्रसिद्ध धार्मिक नगर । यह कृतवीर्य के पुत्र सहस्रार्जुन
राजा विशेष कर हिंसक जन्तुओं का शिकार वनवासी की राजधानी थी । आद्य शंकराचार्यजी से शास्त्रार्थ करने
प्रजा और ग्राम्य पशुओं के रक्षार्थ ही करते थे । इन लोगों वाले मण्डन मिश्र भी यहीं के रहने वाले थे। यहाँ
में मांसभक्षण की प्रवृत्ति आक्रमण और युद्ध के समय कालेश्वर और बालेश्वर के शिव मन्दिर हैं। नगर के
उग्रता प्रकाश के विचार से उचित या वैध मानी जाती पश्चिम मतङ्ग ऋषि का आश्रम तथा मातङ्गेश्वर मन्दिर थी। मांस भक्षण असभ्य, अशिक्षित, मूढ़ लोगों में है । पास ही भर्तृहरि गुफा और मंगला गौरी मन्दिर है।
स्वभावतः प्रचलित था । काल क्रम से इनकी देखा-देखी नर्मदा के द्वीप में बाणेश्वर मन्दिर है। वहीं सिद्धेश्वर और
सभ्य क्षत्रिय या द्विज भी लौल्यवश इधर प्रवृत्त हो जाते रावणेश्वर लिङ्ग भी है। पञ्चपुरियों की गणना में
थे। किंतु प्राचीन धर्मग्रन्थों में मांसभक्षण निषिद्ध महेश्वरपुर की गणना आती है। यहाँ अनेक मन्दिर हैं ।
ठहराया गया है । फिर भी इस प्रवृत्ति का निःशेष निरोध जगन्नाथ, रामेश्वर, बदरीनाथ, द्वारकाधीश, पंढरीनाथ,
सहसा कठिन देखकर शास्त्रकारों ने याज्ञिक कर्मकाण्ड के परशुराम, अहल्येश्वर आदि । यह पुरी गुप्त काशी भी कही
आवरण से इसको प्रयाससाध्य या महँगा बना दिया । जाती है।
नियम बन गये कि मांस खाना हो तो लंबे यज्ञानुष्ठान के माहेश्वर-यह शैवों के सम्प्रदाय विशेष की उपाधि है। द्वारा पशुबलि देकर प्रसाद-यज्ञ शेष रूप-में ही ऐसा इसका शाब्दिक अर्थ है 'महेश्वर ( शिव ) का भक्त । किया जा सकता है । पूर्वमीमांसा शास्त्र में यह 'परिसंख्या माहेश्वर उपपुराण-यह उन्तीस प्रसिद्ध उपपुराणों में से विधि' का सिद्धान्त कहलाता है। मांसभक्षण से निवृत्त
होना ही इसका आशय है । माहेश्वर सम्प्रदाय-महाभारत काल में पाशुपत मत प्रधान
धार्मिक रूप से वेदमन्त्रों ने पशुमांस भक्षण का स्पष्ट रूप से प्रचलित था। माहेश्वर तथा शैव आदि उसके निषेध किया है और अहिसा धर्म की प्रशंसा की है। 'परम अन्तर्गत उपसम्प्रदाय थे। माहेश्वर सम्प्रदाय में महेश- धर्म श्रुति विदित अहिंसा" वाली तुलसीदासजी की उक्ति मूर्ति की उपासना होती है। अन्य आचार सामान्य शैवों निराधार नहीं है। “मा हिंस्यात् सर्वा भूतानि" जैसा ही होता है।
प्रसिद्ध वेदवाक्य है । "यजमानस्य पशून् पाहि', ( यजु० माहेश्वर सूत्र-चौदह माहेश्वर सूत्रों के आधार पर अष्टा- १.१), "अश्वम् अविम् ऊर्णायु मा हिसीः।" ( यजु० ध्यायी में पाणिनि ने प्रत्याहार बनाये हैं, जिनका प्रयोग १३.५०), "मा हिंसिष्टं द्विपदो मा चतुष्पदः ।" (अथर्व०
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