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मुखबिम्ब आगम-मुजे
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बाद हवन का भी आयोजन होना चाहिए। आँगन को विषयों का जिस ग्रन्थ में वर्णन हो, वह मुख्य तन्त्र कहगौ के गोबर तथा रक्त चन्दन से लोपकर वहाँ अष्टदल लाता है। विशेष विवरण 'तन्त्र' शब्द की व्याख्या कमल बनाकर पूर्व की ओर से प्रारम्भकर प्रति देवता में देखें। का कमल के दलों पर आह्वान करना चाहिए। तदनन्तर मचकुन्दतीर्थ (धौलपुर)--राजस्थान के पूर्वी प्रवेशद्वार मन्त्रों को बोलकर षोडशोपचार पूजन करना चाहिए। धौलपुर से तीन मील पर सुरम्य पर्वत श्रृंखला में स्थित व्रती उस दिन उपवास करे । वह षट् रसों (लवण, मिष्ठ, राजर्षि मुचुकुन्द की गुफा। देवकार्य से निवृत्त होकर अम्ल, तिक्त, कटु, कसैला) में से एक ही रस का सेवन
मुचुकुन्द श्रमनिवारणार्थ इस गुफा में शयन कर रहे थे । करे । दो-दो मास तक एक रस लेने के बाद अगले दो
देवताओं ने उनको वर दिया था कि तुम्हारी निद्रा भंग मास तक दूसरा रस लेना चाहिए। इसी प्रकार बारह
करने वाला भस्म हो जायगा। कालयवन से भयाक्रान्त महीने में छः रसों का सेवन करना चाहिए। तेरहवें मास
होकर श्रीकृष्ण उसको मथुरा से यहाँ तक भगा लाये व्रत की पारणा हो तथा व्रती कपिला गौ का दान करे ।
और अपना पीताम्बर राजा पर डालकर स्वयं गुफा में इस व्रत से व्रती मोक्ष प्राप्त करता है।
छिप गये। कालयवन ने कृष्ण के धोखे से सोते हए मुखबिम्ब आगम-एक रौद्रिक आगम है, जो 'मुखबिन्ब'
मुचकुन्द को लात मारी और राजा की दृष्टि पड़ते ही अथवा 'मुखयुग्बिम्ब' नाम से प्रसिद्ध है।
वह जलकर भस्म हो गया । पश्चात् श्री कृष्ण ने दिव्य मुखयुग्बिम्ब आगम-दे० 'मुखबिम्ब आगम' ।
दर्शन देकर राजा को बदरिकाश्रम में जाने की आज्ञा दी। मुखलिङ्ग--मुख की आकृति से अङ्कित लिंग को मुखलिङ्ग मुचकुन्द ने गुफा से बाहर आकर यज्ञ सम्पन्न किया और कहते हैं । एक से लेकर पञ्चमुख तक के लिङ्ग पाये जाते वे उत्तराखंड चले गये। इस पर्वतीय स्थली को गन्धहैं। अमूर्त शिवतत्त्व को मूर्त अथवा मुखर रूप देने का
मादन कहते हैं । मुचुकुन्द के यज्ञस्थान पर एक सरोवर यह प्रयास है । शिव की पूजा-अर्चा लिङ्ग के रूप में अति है जिसमें चारों ओर पक्के घाट तथा अनेक देवमन्दिर प्राचीन काल से चली आ रही है। न केवल भारत वरन् हैं । ऋषिपञ्चमी और बलदेवछठ को यहाँ भारी मेला वृहत्तर भारत में भी इसका प्रचलन था । हिन्द चीन के होता है। दिल्ली-बम्बई राष्ट्रीय मार्ग से केवल एक मील प्रदेश चम्पा में शिव सम्प्रदाय का प्रचार बहुत अधिक दूर होने के कारण पर्यटक यात्रियों के लिए यह दर्शनीय था। यहाँ के मन्दिरों के भग्नावशेषों में अनेक ऐसी वेदि- स्थल होता जा रहा है। काएं उपलब्ध होती हैं जिनके मध्य अवश्य कभी लिङ्ग
वाराहपुराण में मथुरामंडल का विस्तार बीस योजन स्थापित रहे होंगे। ये सभी लिङ्ग साधारण आकृति के
कहा गया है और इसी के साथ मुचुकुन्दतीर्थ तथा पवित्र बेलनाकार ऊारी सिरे पर गोल हैं। यहाँ के लिङ्गों में
कुण्ड का माहात्म्य वर्णन किया गया है। इस तीर्थ से मुखलिङ्ग भी थे । इसका प्रमाण पोक्लोन गरई के मन्दिर
प्राय २-३ कोस दूर मथुरामण्डल के दक्षिण छोर पर में उपस्थित मुखलिङ्ग से होता है। लिङ्ग में मुख अंकित
यमुना की सहायक नदी चम्बल बहती है। इसकी पुण्यहै जो मुकुट तथा राजा के अन्य आभूषणों से सुसज्जित है।
शालिता का स्मरण कालिदास ने भी अपने मेघ को कराया मुखवत-इस व्रत के अनुसार एक वर्ष के लिए ताम्बूल
हैं क्योंकि यह नदी अतिथि सत्कार के लिए काटे गये (मुखवास) का परित्याग करना पड़ता है। वर्ष के अन्त
कदलीवृक्षों में से निकलकर बहती थी। में एक गौ का दान विहित है। इससे व्रती यक्षों का स्वामी बन जाता है।
मञ्ज--एक प्रकार की लम्बी घास जो दस फुट तक बढ़ती मुख्यतन्त्र-तन्त्रशास्त्र तीन भागों में विभक्त है-आगम, है । ऋग्वेद में अन्य घासों के साथ इसका उल्लेख हुआ यामल और मुख्य तन्त्र । सृष्टि, लय, मन्त्रनिर्णय देवताओं है। उसी ग्रन्थ में (१.१६१,८) मुञ्ज सोम को छानने के के संस्थान, यन्त्र-निर्णय, तीर्थ, आश्रम धर्म, कल्प, ज्योतिष ___ काम में आने वाली कही गयी है। अन्य संहिताओं तथा संस्थान, व्रत कथा, शौच और अशौच, स्त्री-पुरुष लक्षण, ब्राह्मणों में मुञ्ज का प्रायः उल्लेख हुआ है। जहाँ इसे राजधर्म, दानधर्म, युगधर्म, व्यवहार तथा आध्यात्मिक खोखला (सुषिर) तथा आसन्दी में व्यवहृत कहा गया है।
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