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महाभूत-महायज्ञ
स्पष्टीकरण के लिए धर्म शब्द का साधारण रूप से और यज्ञ शब्द का विशेष रूप से प्रयोग किया जाता है ।
नीतिक, भौगोलिक एवं दार्शनिक महत्त्व रखता है। रचना-काल वि० पू० १०० सं० के लगभग है। महाभूत-जिन तत्त्वों से सृष्टि ( स्थूल ) की रचना हुई है उन्हें 'महाभूत' कहते हैं । पञ्च महाभूतों के सिद्धान्त को सांख्य दर्शन भी मानता है एवं वहाँ इसके दो विभाजनों द्वारा उसका और भी सूक्ष्म विकास किया गया गया है । वे दो विभाजन हैं : (१) तन्मात्रा ( सूक्ष्मभूत ) तथा (२) महाभत ( स्थल भूत )। दूसरे विभाग में पाँच महाभूत हैं-पृथ्वी, जल, तेज ( अग्नि ), वायु और आकाश ।। महामाघी-जब सूर्य श्रवण नक्षत्र का तथा चन्द्रमा मधा नक्षत्र का हो तो यह तिथि महामाधी कहलाती है। 'पुरुषार्थचिन्तामणि' ( ३१३-३१४ ) के अनुसार जब शनि मेष राशि पर हो, चन्द्र तथा वृहस्पति सिंह राशि पर हों तथा सूर्य श्रवण नक्षत्र में हो तो यह योग महामाघी कहा जाता है । इस पर्व पर प्रयाग में त्रिवेणी संगम अथवा अन्य पवित्र नदियों तथा सरोवरों में प्रातः काल माघ मास में स्नान करना समस्त महापापों का नाशक है।
यज्ञ और यहायज्ञ एक ही अनुष्ठान हैं, फिर भी दोनों में किञ्चिद् भेद है। यज्ञ में फलरूप आत्मोन्नति के साथ व्यष्टि का सम्बन्ध जुड़ा रहता है। अतः इसमें स्वार्थ पक्ष प्रबल है। पर महायज्ञ समष्टि-प्रधान होता है । अतः इसमें व्यक्ति के साथ जगत्कल्याण और आत्मा का कल्याण निहित रहता है । निष्काम कर्मरूप औदार्य से इसका अधिक सम्बन्ध है। इसलिए महर्षि भरद्वाज ने कहा है कि सुकौशलपूर्ण कर्म ही यज्ञ है और समष्टि सम्बन्ध से उसी को महायज्ञ कहते हैं।
तमिलनाडु में 'मख' वार्षिक मन्दिरोत्सव होता है तथा बारह वर्षों के बाद 'महामख' मनाया जाता है । उस समय कुम्भकोणम् नामक स्थान में एक भारी मेला लगता है । जहाँ 'महामघ' नामक सरोवर में स्नान किया जाता है । इस विशाल मेले की तुलना प्रयाग के कुम्भ से की जा सकती है। दक्षिण भारत में यह मेला 'ममंघम' नाम से प्रसिद्ध है तथा उस समय होता है जब पूर्ण चन्द्र मघा नक्षत्र का हो और बृहस्पति सिंह राशि पर स्थित हो ।
यह आश्चर्यजनक बात ही कही जायगी कि मध्यकाल का कोई भी धर्मग्रन्थ महामखम् उत्सव तथा कुम्भ मेले के विषय में कुछ भी उल्लेख नहीं करता। इतना अवश्य ज्ञात है कि सम्राट हर्षवर्द्धन प्रति पाँच वर्षों के बाद प्रयाग के विस्तृत क्षेत्र में त्रिवेणीसंगम के पश्चिमवर्ती तट पर, जहाँ आजकल भी माघ में मेला लगता है, अपने राजकोष को ब्राह्मणों, भिक्षुओं तथा निर्धनों में वितरित करता था। महायज्ञ--शास्त्रों में प्राणिमात्र के हितकारी पुरुषार्थ को यज्ञ कहा गया है । धर्म और यज्ञ वस्तुतः कार्य और कारण रूप से एक दूसरे के पर्यायवाची है। वैज्ञानिक
यज्ञ और महायज्ञ को परिभाषित करते हुए महर्षि अंगिरा ने इस प्रकार कहा है : व्यक्तिसापेक्ष व्यष्टि धर्मकार्य को यज्ञ तथा सार्वभौम समष्टि धर्मकार्य को महायज्ञ कहते है । वस्तुतः शास्त्रों में जीव स्वार्थ के चार भेद बताये गये है-स्वार्थ, परमार्थ, परोपकार और परमोपकार । तत्त्वज्ञों के अनुसार जीव का लौकिक सुख-साधन स्वार्थ है और पारलौकिक सुख के लिए कृत पुरुषार्थ को परमार्थ कहते हैं। दूसरे जीवों के लौकिक सुख साधन एकत्र करने का कार्य परोपकार और अन्य जीवों के पारलौकिक कल्याण कराने के लिए किया गया प्रयत्न परमोपकार कहलाता है । स्वार्थ और परमार्थ यज्ञ से तथा परोपकार और परमोपकार महायज्ञ से सम्बद्ध है । महायज्ञ प्रायः निष्काम होता है और साधक के लिए मुक्तिदायक होता है।
स्मृतियों में पञ्चसुना दोषनाशक पञ्च महायज्ञों का जो विधान किया गया है, वह व्यष्टि जीवन से सम्बद्ध है । उसका फल गौण होता है । वस्तुतः पञ्चमहायज्ञ उसकी अपेक्षा उच्चतर स्तर रखता है । उसका प्रमुख लक्ष्यरूप फल विश्वजीवन के साथ एकता स्थापित कर आत्मोन्नति करना है। वे पञ्चमहायज्ञ-ब्रह्मयज्ञ, देवयज्ञ, पितृयज्ञ, नृयज्ञ तथा भूतयज्ञ है। मनु के अनुसार अध्ययन-अध्यापन को ब्रह्मयज्ञ, अन्न-जल के द्वारा नित्य पितरों का तर्पण करना पितृयज्ञ, देव-होम देवयज्ञ, पशु-पक्षियों को अन्नादि दान भूतयज्ञ तथा अतिथियों की सेवा नृयज्ञ है । इन पंचमहायज्ञों का यथाशक्ति विधिवत् अनुष्ठान करने वाले गृहस्थ को पंचसुना दोष नहीं लगते । इन कर्मों से विरत
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