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महालक्ष्मी-महावीर
होकर पूजन में सम्मिलित होती हैं। वे अपने हाथों में खाली कलश ग्रहण कर उसमें ही अपने श्वास-प्रश्वास खींचती हैं तथा भिन्न-भिन्न प्रकार से अपने शरीर को झुकाती हैं। पुरुषार्थचिन्तामणि ( १० १२९-१३२) में इसका लम्बा वर्णन किया गया है। इस ग्रन्थ के अनुसार यह व्रत स्त्री तथा पुरुष दोनों के लिए है। महालक्ष्मी-ऋषियों ने सष्टि विद्या की मूल कारण तीन महाशक्तियाँ-महासरस्वती, महालक्ष्मी और महाकाली- स्वीकार किया है इनसे हो क्रमशः सष्टि, पालन और प्रलय के कार्य होते हैं। एक ही अज पुरुष की अजा नाम से प्रसिद्ध महाशक्ति तीन रूपों में परिणत होकर सृष्टि, पालन और प्रलय की अधिष्ठात्री बन जाती है। महालक्ष्मीव्रत-सूर्य के कन्या राशि में आने से पूर्व भाद्र शुक्ल अष्टमी को इस व्रत को आरम्भ करना चाहिए और अग्रिम अष्टमी को ही (१६ दिनों में) पूजा तथा व्रत समाप्त कर देना चाहिए । सम्भव हो तो व्रत ज्येष्ठा नक्षत्र को प्रारम्भ किया जाना चाहिए। १६ वर्षों तक इस व्रत का आचरण होना चाहिए । यहाँ स्त्री पुरुषों के लिए १६ की संख्या अत्यन्त प्रधान है, जैसे पुष्पों और फलों इत्यादि के लिए भी १६ की संख्या का ही विधान है। व्रती को अपने दाहिने हाथ में १६ धागों का १६ गाँठों वाला सूत्र धारण करना चाहिए। इस व्रत से लक्ष्मी जी व्रत करने वाले का तीन जन्मों तक साथ नहीं छोड़तीं। उसे दीर्घायु, स्वास्थ्यादि भी प्राप्त होता है । महालया-आश्विन मास का कृष्ण पक्ष महालया कहलाता है। इस पक्ष में पार्वण श्राद्ध या तो सभी दिनों में या कम से कम एक तिथि को अवश्य करना चाहिए। दे० तिथितत्त्व, १६६; वर्षकृत्यदीपिका, ८० । महावन-व्रजमंडल में मथुरा से चार कोस दूर यमुना पार का एक यात्रा स्थल, जिसे पुराना गोकुल कहते हैं। यहाँ नन्दभवन है । पहले नन्दजी यहीं रहते थे। चिन्ताहरण, यमलार्जुनभङ्ग, वत्सचारणस्थान, नन्दकूप, पूतनाखार, शकरासुरभङ्ग, नन्दभवन, दधिमन्थनस्थान, छठीपालना, चौरासीखम्भों का मन्दिर (दाऊजी की मूर्ति), मथुरानाथ, श्यामजी का मन्दिर, गायों का खिड़क, गोबर के टीले दाऊ जी और श्रीकृष्ण की रमणरेती, गोपकप तथा नारद टोला आदि इसके अन्तर्गत यात्रियों के लिए दर्शनीय स्थान
हैं। मध्यकीला में यहाँ के क्षत्रिय राजा और उसकी राजधानी एवं दुर्ग को मुसलमान आक्रमणकारियों ने नष्टभ्रष्ट कर दिया था। इन ध्वंसावशेषों में ही उपयुक्त स्थान पूजा-यात्रास्थल माने जाते हैं। महाविद्या-(१) रहस्यपूर्ण ज्ञान, प्रभावशाली मन्त्र और सिद्ध स्तोत्र या स्तवराज महाविद्या कहे जाते हैं। अथर्वपरिशिष्ट के नारायण, रुद्र, दुर्गा, सूर्य और गणपति के सूक्त भी महाविद्या कहे गये हैं।
(२) नियम (वेद) जिसे विराट् विद्या कहते हैं आगम (तन्त्र) उसे ही महाविद्या कहते हैं। दक्षिण और वाम दोनों मार्ग वाले दस महाविद्याओं की उपासना करते हैं। ये हैं-महाकाली, उग्रतारा, षोडशी, भुवनेश्वरी, छिन्नमस्ता, भैखी, धूमावती, बगलामुखी, मातङ्गी और कमला। महावीर-(१) जैनियों के चौबीसवें तीर्थङ्कर और जैनधर्म के अन्तिम प्रवर्तक । वास्तव में ऐतिहासिक जैनधर्म के ये ही प्रवर्तक माने जाते हैं। इनका जन्म ५९९ ई० पू० लिच्छविगणसंघ की ज्ञात्रिशाखा में वैशाली के पास कुण्डिनपुर में हुआ। इनके पिता का नाम सिद्धार्थ और माता का नाम त्रिशला था। सिद्धार्थ एक सामान्य गणमुख्य थे। महावीर का बाल्यावस्था का नाम वर्धमान था। वे प्रारम्भ से ही चिन्तनशील और विरक्त थे । सिद्धार्थ ने वर्धमान का विवाह यशोदा नामक युवती से कर दिया। उनकी एक कन्या भी उत्पन्न हुई। परन्तु सांसारिक कार्यों में उनका मन नहीं लगा। जब ये तीस वर्ष के हुए तब किसी बुद्ध अथवा अर्हत ने आकर इनको ज्ञानोपदेश देकर यति धर्म में दीक्षित कर दिया।
इसी वर्ष वे मार्गशीर्ष कृष्ण दशमी को परिवार और सांसारिक बन्धनों को छोड़कर वन में चले गये। यहाँ पर संसार के दुःखों और उनसे मुक्ति के मार्ग पर इन्होंने विचार करना प्रारम्भ किया, घोर तपस्या का जीवन बिताया। बारह वर्षों तक एक आसन से बैठे हुए अत्यन्त सूक्ष्म विचार में मग्न रहे। इसके अन्त में उन्हें सन्यक ज्ञान प्राप्त हुआ, सर्वज्ञता की उपलब्धि हुई। __ संसार, देव, मनुष्य, असुर, सभी जीवधारियों की सभी अवस्थाओं को वे जान गये। अब वे जिन (कर्म के ऊपर विजयी) हो गये। इसके अनन्तर अष्टादश गुणों में युक्त तीर्थङ्कर हो गये तथा तीस वर्षों तक अपने सिद्धान्तों का
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