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मरुत्वत-मर्दाना
बादलों के साथ अन्धकार की सृष्टि करते हैं, वे पृथ्वी इसके प्रथम महन्त मरुल थे। इनका वीरशंव परम्परा में को गीला कर देते हैं, गरते हुए कुओं को दुहते हैं, आकाश अति उच्च और संमानित स्थान है । के गायक है, जो इन्द्र की शक्ति उत्पन्न करते हैं तथा मालाराध्य-अवन्तिकापुरी के सिद्ध श्वर लिङ्ग से, जो अपने वंशी-वादन द्वारा पर्वतों को स्वच्छ कर देते है,
भगवान् शिव का वामदेव रूप है, महात्मा मरुलाराध्य अहि तथा शम्बर के मारने में इन्द्र की सहायता करते है
प्रकट हुए थे। कहते हैं कि वे अवन्ती के राजा के साथ तथा सभी आकाशीय विजयों में इन्द्र का साथ देते हैं
मतभेद हो जाने से वल्लारी (कर्नाटक) जिले के एक गाँव (ऋ० ३.४७, ३-४; १.१०० आदि) । सब सन्दर्भो को
में जाकर बस गये थे। दे० 'महल'। जोड़ने से प्रतीत होता है कि मरुत इन्द्र के साथी है तथा आकाश के योद्धा हैं । वे अपने कन्धों पर भाले, पैरों में
र मरैज्ञानसम्बन्ध-अरुलनन्दी के शिष्य मरै ज्ञानसम्बन्ध थे।
म पदत्राण, छाती पर सुनहरे आभूषण, रथों पर शानदार
ये शूद्र वर्ण में उत्पन्न हुए थे। इन्होंने 'शैव समयनेऋ' वस्तुएँ, हाथों में विद्युत् तथा सिर पर सुनहरे मुकुट धारण
नामक ग्रन्थ की रचना की। ये १३वीं शताब्दी में मद्रास करते हैं।
क्षेत्र के अन्तर्गत वर्तमान थे । उपर्यक्त विवरण से स्पष्ट है कि मरुत झंझावात के मर्कटात्मज भक्ति-शैव आगमों के अनुसार भक्ति दो देवता हैं। उनके स्वभाव का विद्युत्, विद्युत्-गर्जन, प्रकार की है। प्रथम मार्जारात्मज भक्ति और दूसरी मर्कआंधी तथा वर्षा के रूप में वर्णन किया गया है । अन्धड़- टात्मज भक्ति । प्रथम भक्ति वह है जहाँ जीवात्मा की तुफान में अनेक बार बिजली चमकती है, अनेकानेक बार दशा देवता की कृपा के भरोसे पर निर्भर होती है, जैसे गर्जन होता है, आंधी चलती है तथा वर्षा की झड़ी लगी कि मार्जारशिशु तबतक असहाय होता है, जबतक उसकी माँ रहती है। इस प्रकार के वर्णनार्थ बहुवचन का प्रयोग उसे मुँह में नहीं पकड़ती, अर्थात् बच्चा निराश्रय पड़ारहता आवश्यक है । वृत्र के मारने में मरुत् ही इन्द्र के सहायक है। स्वतः निष्क्रिय रहने वाले ऐसे प्राण की इस भक्ति को थे। यह आश्चर्य है कि इन्द्र ने अपने मण्डल से बाहर अधम कहा गया है (सा भक्तिः अधमा) । दूसरे प्रकार की जाकर रुद्रमण्डल में अपने मित्र एवं सहायक ढूँढ़े, क्योंकि भक्ति में जीवात्मा स्वयं भी भजन-पूजन करते हुए ईश्वररुद्र के पुत्र (गण) होने के कारण मरुत् रुद्रिय कहलाते हैं। प्राप्ति के लिए देवता का सहारा भी लाभ कर सकता मरुतव्रत-चैत्र शुक्ल सप्तमी को इस व्रत का अनुष्ठान
है। जैसे वानर या मर्कटशिशु अपनी माँ को कसकर होता है । षष्ठी को उपवास किया जाता है। ऋतुओं का
पकड़े रहता है और माँ जरा सा सहारा उसे देते हुए उछसप्तमी को पूजन किया जाता है । व्रती घिसे हुए चन्दन
लती-कूदती रहती है। से सात पंक्तियाँ तथा प्रति पंक्ति में सात मण्डल बनाता उक्त दोनों प्रकारों में द्वितीय-मर्कटात्मज-भक्ति है। प्रथम पंक्ति में वह सात नाम एक ज्योति से सप्त में आत्मा स्वतः कार्यशील होता है, सचेष्ट, होता है, ज्योति तक लिखता है। प्रति पंक्ति में इसी प्रकार भिन्न- जबकि प्रथम-मार्जारात्मज-भक्ति में आत्मा स्वयं अकर्मण्यभिन्न नाम लिखे जाते हैं। उनचास दीपक प्रज्वलित किए
होता है, वह पूर्ण रूप से देवकृपा पर निर्भर रहता है । जाते हैं। घृत से होम तथा एक वर्ष तक ब्राह्मणों को
इस प्रकार यह हेय है, जबकि मकटात्मज भक्ति श्रेष्ठ है । भोजन कराने का इसमें विधान है। व्रत के अन्त में गौ
परन्तु कई भक्ति सम्प्रदायों (यथा श्रीवैष्णवों में मार्जातथा वस्त्रों का दान विहित है । यह व्रत स्वास्थ्य, सम्पत्ति, रात्मज भक्ति ही श्रेष्ठ भानी जाती है, जिसमें भक्त अपने पुत्र, विद्या तथा स्वर्ग प्रदान कराता है। कहा जाता है, जीवन को भगवान् पर पूर्णतः छोड़ देता है। इन सम्प्रमरुद्गण सात अथवा ४९ है। दे० ऋग्वेद, ५.५२.१७; दायों में मर्कटात्मज भक्ति को छोटी मानते हैं, जिसमें तैत्तिरीय संहिता २.११.१ 'सप्त गणा व मरुत्' ।
भक्त भगवान् पर आधा ही भरोसा रखता है और आधे माल--वीरशैव सम्प्रदाय की संचालन व्यवस्था पर्याप्त में अपने अभिमान को पकड़े रहता है । इन सम्प्रदायों के महत्वपूर्ण है। इसके पाँच आदि मठ हैं। इनमें चौथा अनुसार पूर्ण प्रपत्ति' ही भक्ति की उत्तम कोटि है। स्थान उज्जिनि, बेल्लारी सीमा (मैसूर) के मठ का है। मर्दाना-गुरु नानक के एक शिष्य का नाम, जो गुरुजी
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