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मङ्गलचण्डिकापूजा-मठ (२) मङ्गल एक ग्रह का नाम है । तत्सम्बन्धी व्रत सुवासिनी-संमान, १६ दीपकों से देवी की नीराजना और के लिए दे० 'भौमवत' ।
रात्रि को जागरण का विधान है । वैधव्य निवारण, पुत्रों मङ्गलचण्डिकापूजा-वर्षकृत्यकौमुदी (५५२.५५८) में की प्राप्ति तथा समस्त कामनाओं की सिद्धि के लिए मङ्गला इस व्रत की विस्तृत विधि प्रस्तुत की गयी है। मङ्गल- की प्रार्थना की जाती है। दूसरे दिवस गौरीप्रतिमा का चण्डिका' को ललितकान्ता भी कहा जाता है। उसकी विसर्जन होता है। पूजा का मन्त्र ( ललितगायत्री) है :
मङ्गलाष्टक-व्रत के लिए निमन्त्रित महिलाओं को जो नारायण्यै विद्महे त्वां चण्डिकाय तु धीमहि । आठ द्रव्य वितरित किये जाते हैं उन्हें मङ्गलाष्टक कहते तन्नो ललिता कान्ता ततः पश्चात् प्रचोदयात् ॥ हैं। जैसे केसर, नमक, गुड़, नारियल, पान, दूर्वा, सिन्दूर
अष्टमी तथा नवमी को देवी का पूजन होना चाहिए। तथा सुरमा। वस्त्र के टुकड़े अथवा कलश पर पूजा की जाती है। जो मङ्गल्यसप्तमी अथवा मङ्गल्यवत-सप्तमी के दिन वर्गाकार मङ्गलवार को इसकी पूजा करता है उसकी समस्त मण्डल बनाकर उस पर हरि तथा लक्ष्मी विराजमान किये मनोवाञ्छाएँ पूरी होती हैं।
जाते हैं, पुष्पादि से उनकी पूजा की जाती है। मृत्तिका, मङ्गलचण्डी-मङ्गलवार के दिन चण्डो का पूजन होना।
ताम्र, रजत तथा सुवर्ण के चार पात्रों को तैयार रखा चाहिए, क्योंकि सर्व प्रथमशिवजी ने और मङ्गल ने जाता है तथा चार मिट्टी के कलश, जो नमक, चीनी, तिल, इनकी पूजा की थी। सुन्दरी नारियाँ मङ्गलवार को सर्व- पिसी हल्दी से परिपूर्ण तथा वस्त्रों से ढके हों, तैयार रहते प्रथम इनकी पूजा । करती हैं बाद में सौभाग्येच्छु सर्व- हैं । आठ पतिव्रता, सधवा, पुत्रवती नारियाँ समादृत की साधारण चण्डी का पूजन करते हैं ।
जाती हैं तथा उन्हें दान-दक्षिणा देकर सम्मानित किया मङ्गलदीपिका-दोय महाचार्य के शिष्य सुदर्शन गुरु ने जाता है । उन्हीं पतिव्रताओं की उपस्थिति में भगवान् हरि महाचार्य कृत 'वेदान्तविजय' की 'मङ्गलदीपिका' नामक से मङ्गल्य ( कल्याणकारी जीवन ) के लिए पार्थना की व्याख्या लिखी है। यह ग्रन्थ कहीं प्रकाशित नहीं जाती है । तदनन्तर महिलाओं को विदा किया जाता है । हुआ है।
अष्टमी को पुनः हरि का पूजन तथा आठ महिलाओं का मङ्गलव्रत-आश्विन, माघ, चैत्र अथवा श्रावण कृष्ण पक्ष ।
सम्मान कर तथा ब्राह्मणों को भोजन कराकर व्रत का की अष्टमी को वह व्रत प्रारम्भ करके शुक्ल पक्ष की
पारण किया जाता है । इसके पालन से प्रत्येक जन चाहे अष्टमी तक जारी रखा जाता है। इसमें अष्टमी को एक- वह स्त्री हो या पुरुष, राजा हो या रङ्क, अपनी मनःभक्त पद्धति से आहार तथा कन्याओं और देवी के भक्तों कामनाओं की पूर्ति होते हुए देखता है । को भोजन कराने का विधान है। नवमी को नक्त, दशमी मञ्जूषा-(१) मलय देशवासी वरदपुत्र पण्डित आनीय को अयाचित तथा एकादशी को उपवास विहित है। ने शांखायन श्रौतसूत्र का एक भाष्य किया है। इसमें से इसकी पुनः दो आवृत्तियाँ होनी चाहिए। प्रति दिन दान, नवें, दसवें और ग्यारहवें अध्याय का भाष्य नष्ट हो गया उपहार, होम, जप, पूजा तथा कन्याओं को भोजन है । दास शर्मा ने मञ्जषा लिखकर इन तीन अध्यायों का कराना चाहिए । बलि, नृत्य तथा नाटक करते हुए रात्रि- भाष्य पूरा किया है। जागरण भी करना चाहिए। देवी के अठारह नामों का (२) शब्दाद्वैत के उद्भट प्रतिपादक नागेश भट्ट सत्रहवीं जप भी इसमें विहित है ।
शताब्दी में हुए हैं। इन्होंने अपने मत का सर्वांगीण मङ्गलागौरीव्रत-विवाहोपरान्त समस्त विवाहित महिलाओं प्रतिपादन 'मञ्जूषा' नामक ग्रन्थ (वैयाकरण सिद्धान्तरत्नद्वारा श्रावण मास में प्रति मङ्गलवार को इस व्रत का मञ्जूषा) में किया है। आयोजन किया जाना चाहिए। पाँच वर्ष तक इसका मठ-छात्रावास या अतिथिनिवास । धार्मिक साधु-सन्तों अनुष्ठान चलता है । यह व्रत महाराष्ट्र में अधिक प्रचलित के निवास तथा बालकों के शिक्षणालय के रूप में विभिन्न है । ब्रत करने वाली महिलाएं मध्याह्न काल में मौन संप्रदायों के मठ बनाये जाते हैं । इन मठों में किसी विशेष धारण करके भोजन करती हैं। १६ प्रकार के पुष्प, १६ सम्प्रदाय का मन्दिर, देवमूर्ति, धार्मिक, ग्रन्थागार एवं
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