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मथुरानाथ-मधु
होकर जरासंघ ने गिरिव्रज (मगध) से अपनी गदा फेंकी कलश का दान करके, ब्राह्मणों को भोजन कराकर तथा थी, जो मथुरा में श्रीकृष्ण के सामने गिरी। जहाँ वह दक्षिणा देकर यजमान स्वयं नमक रहित भोजन करे। त्रयोगिरी उस स्थल को गदावसान कहा गया है। पर इसका दशी के दिन उपवास, द्वादशी को केवल एक फल खाकर उल्लेख अन्यत्र कहीं नहीं मिलता।
भगवान् विष्णु की पूजा और उन्हीं के सम्मुख खाली मथुरानाथ-सोलहवीं शताब्दी के अन्त के एक वंगदेशस्थ भूमि पर शयन करना चाहिए। यह क्रम एक वर्ष तक नैयायिक । इन्होंने गङ्गेश उपाध्याय रचित तत्त्वचिन्ता- चलना चाहिए । वर्ष के अन्त में एक गौ तथा वस्त्र दान मणि नामक तार्किक ग्रन्थ पर तत्त्वालोक-रहस्य नामक देकर सफेद तिलों से हवन करना चाहिए। इस व्रत के भाष्य लिखा। इनका अन्य नाम 'मथुरानाथी' भी है। आचरण से मनुष्य समस्त पापों से मुक्त होकर पुत्र, पौत्र, मथुरानाथी-दे० 'मथुरानाथ' । मथुरानाथ के नाम से ।
ऋद्धि-सिद्धियों को प्राप्त करता हुआ भगवान् विष्णु में नैयायिकों का एक सम्प्रदाय चला, जो मथुरानाथी कह- लीन हो जाता है। लाता है।
मदनमहोत्सव-चैत्र शुक्ल त्रयोदशी को इस व्रत का अनुमयुराप्रदाक्षणा-मथुरा का परिक्रमा धामिक क्रिया है। ष्ठान होता है । मध्याह्न काल में कामदेव की मूर्ति अथवा इसी प्रकार मथुरामण्डल के अन्यान्य पवित्रस्थल-वृन्दावन, चित्र का निम्नांकित मन्त्र से पूजन करना चाहिए । "नमः गोवर्धन, गोकुल आदि की प्रदक्षिणा भी परम पावन मानी कामाय देवाय, देव देवाय मूर्तये । ब्रह्म-विष्णु-सुरेशानां जाती है। भारत की सात पवित्र पुरियों में से एक मथुरा मनः क्षोभ कराय वै ।' मिष्ठान्न खाद्य पदार्थ प्रतिमा के भी है
सम्मुख रखना चाहिए । गौ का जोड़ा दान में दिया जाय। कार्तिक शुक्ल नवमी को यह प्रदक्षिणा की जाती है। पत्नियाँ अपने पतियों का, कामदेव का रूप समय कर मथुरामाहात्म्य-रूपगोस्वामी द्वारा संस्कारित-संपादित पूजन करें। रात्रि को जागरण, नृत्योत्सव, रोशनी तथा मथुरामाहात्म्य वराह पुराण का एक भाग है । इसमें मथुरा नाटकादि का आयोजन किया जाना चाहिए। यह प्रति और वृन्दावन तथा उनके समीपवर्ती सभी पवित्र स्थानों
वर्ष किया जाना चाहिए। इस आचरण से व्रती शोक, के वर्णन हैं।
सन्ताप तथा रोगों से मुक्त होकर कल्याण, यश तथा मदनचतुर्दशी-यह कामदेव का व्रत है । इस चतुर्दशी को सम्पत्ति प्राप्त करता है। 'मदनभञ्जी' भी कहा जाता है। चैत्र शुक्ल चतुर्दशी को मदुरा-दक्षिण भारत (तमिलनाडु) का प्रसिद्ध तीर्थ स्थान इसका अनुष्ठान किया जाता है । इसमें कामदेव की सन्तुष्टि जिसे दक्षिण की मथुरा कहते हैं। द्रविड स्थापत्य की के लिए गीत, नृत्य तथा शृङ्गारिक शब्दों से उनका पूजन सुन्दर कृतियों से शोभित मन्दिर यहाँ वर्तमान हैं । होता है।
चौदहवीं शताब्दी से अठारहवीं शताब्दी के बीच मदनत्रयोदशी-देखिए 'अनङ्गत्रयोदशौ' तथा 'कामदेव
दक्षिण भारत में रचे गये शैव साहित्य में दो स्थानीय त्रयोदशी' । कृत्यरत्नाकर, १३७ (ब्रह्मपुराण को उद्धृत
धार्मिक कथासंग्रह अति प्रसिद्ध है । इस बीच परज्जोति ने करते हए) कहता है कि समस्त त्रयोदशियों को कामदेव
'तिरुविलआदतपुराणम्' तथा काञ्जीअप्पर एवं उनके गुरु की पूजा की जानी चाहिए।
शिवज्ञान योगी ने 'काञ्चीपुराणम्' रचा। प्रथम ग्रन्थ मदनद्वादशी-चैत्र शुक्ल द्वादशी को इस तिथिवत का अनु- मदुरा के तथा द्वितीय काजीवरम् के लौकिक धर्म-कथाष्ठान होता है । ताँबे की तश्तरी में गुड़, खाद्य पदार्थ तथा नकों का प्रतिनिधित्व करता है। ये दोनों ग्रन्थ बहुत सुवर्ण रखकर जल, अक्षत तथा फलों से परिपूर्ण लोकप्रिय हैं। कलश के ऊपर स्थापित कर देना चाहिए तथा कामदेव मधु-कोई भी खाद्य या पेय मीठा पदार्थ । विशेष कर पेय और उसकी पत्नी रति की आकृतियाँ बना देनी चाहिए। के लिए यह शब्द ऋग्वेद में व्यवहृत है। स्पष्ट रूप से इनके सम्मुख खाद्य पदार्थ रखकर प्रेमपूर्ण गीत गाने __ यह सोम अथवा दुग्ध तथा इनसे कम शहद के लिए व्यवहृत चाहिए । भगवान् हरि की मूर्ति को कामदेव समझ कर है । (ऋ० ८.४,८ । यहाँ 'सारध' विशेषण द्वारा अर्थ स्नान करा कर पूजन करना चाहिए। दूसरे दिन उस को स्पष्ट किया गया है।) परवर्ती साहित्य में
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