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मथुरा
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रहा है। पाणिनि तथा कात्यायन ने इसका उल्लेख किया है। पतञ्जलि के महाभाष्य में वासुदेव के द्वारा कंस-वध होने की चर्चा की गयी है। आदिपर्व (२२१.४६) में मथुरा की प्रसिद्धि गायों के संदर्भ में चचित है । वायु पुराण (८८.१८५) के अनुसार भगवान् राम के अनुज शत्रुघ्न ने मधु नामक राक्षस के पुत्र लवणासुर का वध इसी स्थल पर किया और तदुपरान्त मथुरा नगर की स्थापना की। रामायण (उत्तर काण्ड ७०.६-९) से विदित होता है कि मथुरा को सुन्दर तथा समृद्ध बनाने में शत्रुघ्न को बारह वर्ष लगे थे। घट जातक में मथुरा को 'उत्तर मथुरा' कहा गया है। कंस और वासुदेव की कथा भी महाभारत तथा पुराणों में थोड़े-थोड़े अन्तर के साथ मिलती है । ह्वेनसांग का कथन है कि उसके समय में वहाँ अशोकराज द्वारा बनवाये गये तीन बौद्ध स्तूप, पाँच बड़े मन्दिर तथा २० संघाराम २००० बौद्ध भिक्षुओं से भरे हुए थे।
मथरा के धार्मिक माहात्म्य का उल्लेख पुराणों में मिलता है । अग्निपुराण (११.८-९) से यह आश्चर्यजनक सूचना मिलती है कि राम की आज्ञा से भरत ने मथुरा नगर में शैलष के तीन करोड़ पुत्रों को मार डाला था। लगभग २००० वर्षों से मथुरापुरी कृष्ण उपासना तथा भागवत धर्म का केन्द्र रही है । वराहपुराण में मथुरा तथा इसके अवान्तर तीर्थों के माहात्म्य के सम्बन्ध में सहस्रों श्लोक मिलते हैं। पुराणों में कृष्ण, राधा, मथुरा, वृन्दावन, गोवर्धन आदि का प्रभुत मात्रा में उल्लेख मिलता है । पद्मपुराण (आदि खण्ड २९.४६-४७) के अनुसार मथुरा से युक्त यमुना मोक्ष देती है। वराह पुराण के अनुसार विष्णु (कृष्ण) को संसार में मथुरा से अधिक प्रियस्थल कोई भी नहीं है, क्योंकि यह उनकी जन्मभूमि है । यह मनुष्य मात्र को मुक्ति प्रदान करती है (१५२. ८-११)-हरिवंश पुराण (विष्णु पर्व ५७.२-३) में मथुरा को लक्ष्मी का निवास स्थान तथा कृषि-उत्पादन का प्रमुख स्थल कहा गया है।
मथुरा का परिमण्डल २० योजन माना गया है । उसके मध्य सर्वोत्तम मथुरापुरी अवस्थित है (नारदीय उत्तर, ७८. २०-२१) । मथुरा के बाह्यान्तर स्थलों में अनेक तीर्थ हैं । उनमें से कुछ प्रमुख तीर्थों का विवरण यहाँ दिया जायगा। वे हैं मधु, ताल, कुमुद, काम्य, बहुल, भद्र, खादिर, महावन,
लोहजंघ, वित्व, भान्डिर और वृन्दावन । इसके अतिरिक्त २४ उपवनों का भी उल्लेख यत्र-तत्र मिलता है पर पुराणों में नहीं । वृन्दावन मथुरा के पश्चिमोत्तर ५ योजन में विस्तृत था। (विष्णु पुराण ५.६.२८-४० तथा नारदीय उत्तरार्द्ध ( ८०.६,८ और ७७ )। यह श्रीकृष्ण के गोचारण क्रीड़ा की स्थली थी। इसे पद्मपुराण में पृथ्वी पर वैकुण्ठ का एक भाग माना गया है। मत्स्य० (१३.३८ ) राधा का वृन्दावन में देवी दाक्षायणी के नाम से उल्लेख करता है। वराहपुराण (१६४.१ ) में गोवर्धन पर्वत मथुरा से दो योजन पश्चिम बताया गया है । यह अब प्रायः १५ मील दूर है । कूर्म० (१.१४-१८) के अनुसार प्राचीन काल में महाराज पृथु ने यहाँ तपस्या की थी। पुराणों में मथुरा से सम्बद्ध कुछ विवरण भ्रामक भी हैं। उदाहरणार्थ हरिवंश (विष्णुपर्व १३.३ ) में तालवन गोवर्धन के उत्तर यमुना तट पर बताया गया है, जबकि यह गोवर्धन के दक्षिण-पूर्व में स्थित है। गोकुल वही है जिसे महावन कहा गया है । जन्म के समय श्री कृष्ण इसी स्थल पर नन्द गोप के घर में लाये गये थे । तदुपरान्त कंस के भय से उन्होंने स्थान परिवर्तन कर दिया और वृन्दावन में रहने लगे।
महावीर और बद्ध के समय में भी मथुरा धार्मिक तीर्थ के रूप में प्रसिद्ध थी। यूनानी लेखकों ने लिखा है कि यहाँ हयूलिज (कृष्ण) की पूजा होती थी। शक-क्षत्रपों, नागों और गुप्तों के समय के बहतेरे धार्मिक अवशेष यहाँ पाये गये हैं। मुसलिम विध्वंसकारियों के आक्रमण के बाद भी मथुरा जीवित रही। १६वीं शताब्दी में मथुरा और वृन्दावन पुनः विष्णुभक्ति साधना के केन्द्र हो गये थे। वृन्दावन चैतन्य भक्ति-साधना का केन्द्र बन गया था। यहाँ के गोस्वामियों में सनातन, रूप, जीव, गोपाल भट्ट, और हरिवंश की अच्छी ख्याति हुई। चैतन्य महाप्रभु के समसामयिक स्वामी वल्लभाचार्य ने प्राचीन गोकुल के अनुकरण पर महावन से एक मील दक्षिण नवीन गोकूल की स्थापना की और उसे अपनी भक्ति-साधना का केन्द्र बनाया । औरंगजेब ने मथरा के प्राचीन मन्दिरों को ध्वस्त कर के उसी स्थिति को पहुँचा दिया जिस स्थिति को काशी के मंदिरों को पहुँचाया था। इतना होने पर भी मथुरा के माहात्म्य में न्यूनता नहीं आयी।
सभापर्व (३१९,२३-२५) के अनुसार कंस-वध कुपित से
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