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मनोरथतृतीया-मनोरथपूर्णिमा
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शुङ्गकाल (द्वितीय शती ई०पू०) में सूमति भार्गव ने मनु- ही प्रयुक्त करना चाहिए । उसी प्रकार कुछ निश्चित पुष्प स्मृति का वर्तमान संस्करण प्रस्तुत किया। इसमें बारह जैसे मल्लिका, करवीर, केतकी) तथा नैवेद्य भी, जिसका अध्याय और दो सहस्र छः सौ चौरानबे श्लोक हैं। विशेष रूप से उल्लेख किया गया है, प्रयुक्त किये जाने ___ मनु के धर्मशास्त्र को सम्मान देते हुए कहा गया है कि चाहिए । व्रत के अन्त में आचार्य को शय्यादान करना मनु के विरोध में लिखी गयो स्मृति मान्य नहीं हो सकती। चाहिए। इसके अतिरिक्त चार बालक तथा बारह कन्याओं मनु ने इस धर्मशास्त्र में दो समस्याओं का समाधान उप- को भोजन और दक्षिणा से सम्मानित करना चाहिए । स्थित किया है। प्रथमतः इसकी रचनाकर उन्होंने इस आचरण से व्रती के सारे मनोरथों की सिद्धि होती है। वैदिक विचारों की रक्षा की । दुसरे, इसके द्वारा एक ऐसे मनोरथद्वादशी--इस व्रत में फाल्गुन शुक्ल एकादशी को उपसमाज की रूपरेखा प्रस्तुत की जिसमें प्रजातीय और वास, तदन्तर द्वादशी को हरि का पूजन-हवनपूर्वक मनोरथव्यक्तिगत विवाद न्यूनतम हों और व्यक्ति का अधिकतम पूर्ति की उनसे प्रार्थना की जाती है। वर्ष को चार-चार विकास सम्भव हो सके तथा एक सहकारी स्वस्थ समाज महीने के तीन भागों में विभाजित कर प्रति भाग में भिन्नकी स्थापना हो सके । इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए मनु भिन्न पुष्पों, धूपों नैवेद्यादिकों का प्रयोग किया जाता है । ने समाज को वर्ण (मनुष्य की प्रकृति) और आश्रम प्रति मास दक्षिणा दी जाती है। व्रत के अन्त में विष्णु (संस्कृति) के आधार पर संगठित किया। वर्ण विभिन्न की सुवर्णप्रतिमा बनवाकर दान में दे दी जाती है । बारह जातियों और वर्गों का समन्वय था । मनु के अनुसार चार ब्राह्मणों को सुन्दर भोजन कराया जाता है तथा कलशों वर्ण थे, कोई पञ्चम वर्ण नहीं था। प्रत्येक वर्ण के उत्कर्ष का दान किया जाता है । और अपकर्ष के मार्ग खुले थे। व्यक्तिगत जीवन चार मनोरथद्वितीया -इस व्रत में शुक्ल पक्ष की द्वितीया को आश्रमों में विभक्त था जिनमें होता हुआ मनुष्य चार पुरु- दिन में वासुदेव का पूजन किया जाता है। द्वितीया के षार्थों-धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की प्राप्ति कर सके। चन्द्रमा को अर्घ्य देकर नक्कपद्धति से चन्द्रास्त से पूर्व
मनुस्मृति के महत्त्व को देखकर अनेक धर्मशास्त्रियों ने आहार करने का विधान है। इस पर व्याख्याएँ लिखीं, जिनमें मेधातिथि, गोविन्दराज मनोरथसंक्रान्ति-एक वर्ष तक प्रत्येक संक्रान्ति के दिन और कुल्लूक बहुत प्रसिद्ध है। इनके अतिरिक्त नारायण, गुड़ सहित जलपूर्ण कलश तथा वस्त्र किसी सद्गृहस्थ को राघवानन्द, नन्दन और रामचन्द्र की टीकाएं भी उल्लेख- दान में देना चाहिए। इसके देवता सूर्य हैं । इस आचरण नीय है । मनु पर असहाय और उदयाकर के उद्धरण भी से व्रती समस्त कामनाओं की सिद्धि प्राप्त करता है तथा पाये जाते हैं। संभवतः भोजदेव और भागुरि ने भी मनु पापमुक्त होकर सीधा सूर्यलोक चला जाता है। पर टीकायें लिखीं।
मनोरथपूर्णिमा-यह व्रत कार्तिक पूर्णिमा को प्रारम्भ होता ति के अतिरिक्त अन्य स्मृतियाँ भी मनु के नाम है। वर्ष भर प्रति पूर्णिमा को उदय होते हुए चन्द्रमा का से प्रचलित थीं। याज्ञवल्क्य स्मति के भाष्यकार विश्वरूप
पूजन तथा नक्त विधि से आहार किया जाता है। प्राकृऔर विज्ञानेश्वर, स्मृतिचन्द्रिका, पराशरमाधवीय आदि तिक नमक का एक वृत्त बनाकर चन्द्रमा का पूजन किया ग्रन्थ वृद्धमनु के अनेक वचन उद्धृत करते हैं । इसीप्रकार जाता है। कार्तिक मास में पूर्ण चन्द्रमा कृत्तिका अथवा बृहन्मनु के वचन मिताक्षरा तथा अन्य ग्रन्थों में पाये रोहिणी का, मार्गशीर्ष मास में मृगशिरा तथा आर्द्रा जाते हैं।
नक्षत्र का तथा अन्य मासों में इसी प्रकार का होना मनोरथतृतीया-चैत्र शुक्ल तृतीया को बीस भुजाधारिणी चाहिए । किन्तु फाल्गुन, श्रावण तथा भाद्रपद में कम से गौरी का पूजन करना चाहिए। एक वर्ष तक इस व्रत का कम एक नक्षत्र अथवा तीनों का एकाधिक मेल होना अनुष्ठान होना चाहिए । व्रती को दन्तधावन करने के चाहिए। उन दिनों सधवा नारियों का सम्मान करना लिए निश्चित वक्षों की शाखाओं (जम्ब, अपामार्ग, खदिर) चाहिए । व्रत के अन्त में कुछ आसनों का जो कुसुम्भका ही उपयोग करना चाहिए । शरीर पर उद्वर्तन करने रञ्जित हों, दान किया जाना चाहिए। इससे व्रती सौन्दर्य, के लिए निश्चित प्रलेप अथवा यक्षकर्दम (केसरचन्दन) वरदान और सुख-सम्पत्ति प्राप्तकर स्वर्ग प्राप्त करता है ।
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