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मनोरवसर्पण-मन्दारषष्ठी
मनोरवसर्पण-शतपथ ब्रा० (१८,१,८) में यह उस पर्वत लित हुआ था। शायद बङ्गाली तान्त्रिकों ने ही इस का नाम है, जिसपर जाकर मनु की नाव ठहरी थी। प्रथा का प्रथम प्रचार किया । उनकी देखा ( देखी) महाभारत में इसका नाम 'नौबन्धन' है। अथर्ववेद में भारत के नाना स्थानों तथा नाना सम्प्रदायों में इस प्रकार
शन' (१९.३९.८) का उल्लेख है । कुछ विद्वानों मन्त्रगुरु की प्रथा चल पड़ी होगी। का मत है कि यह शब्द मनोरवसर्पण की ओर ही संकेत मन्त्रब्राह्मण-सामवेदीय छठे ब्राह्मण का नाम मन्त्रब्राह्मण करता है। परन्तु अधिकांश विद्वान् इस विचार से सहमत है। इसमें दस प्रपाठक हैं। गृह्य यज्ञकर्म के प्रायः सभी नहीं हैं।
मन्त्र इस ग्रन्थ में संगृहीत है। इसे उपनिषद्ब्राह्मण, मन्त्र-वैदिक संहिताओं मे गायक के विचारों की उपज, संहितोपनिषद् ब्राह्मण वा छान्दोग्यब्राह्मण भी कहते हैं । ऋचा, छन्द, स्तुति को मन्त्र कहा गया है। ब्राह्मणों में इसमें सामवेद पढ़नेवालों की रोचकता के लिए सम्प्रदायऋषियों के गद्य या पद्यमय कथनों को मन्त्र कहा गया प्रवर्तक ऋषियों की कथा लिखी गयो है । इसी ब्राह्मण के है। साधारणत: किसी भी वैदिक सूक अथवा यज्ञोय आठवें से लेकर दसवें प्रपाठक तक के अंश का नाम निरूपणों को मन्त्र कहते हैं, जो ऋक्, साम और यजुष् 'छान्दोग्योपनिषद' प्रसिद्ध है। कहलाते हैं। ये वेदों के ब्राह्मण, आरण्यक और उपनिषद् मन्त्रमहोदधि-महीधर ने १६४६ वि० सं० में 'मन्त्र भाग से भिन्न हैं। किसी देवता के प्रति समर्पित सूक्ष्म महोदधि' नामक कर्मकाण्ड की पुस्तक लिखी जो शाक्त प्रार्थना को भी मन्त्र कहते हैं, यथा, शैव सम्प्रदाय का तथा शैव दोनों सम्प्रदायों में मान्य है। मन्त्र 'नमः शिवाय' और भागवत सम्प्रदाय का 'नमो मन्त्रराज ( नरसिंह कृत)-नरसिंह सम्प्रदाय का साम्प्र. भगवते वासुदेवाय' । शाक्त और तान्त्रिक सम्प्रदायों में
दायिक मन्त्र, जो अनुष्टुप् छन्द में है, 'मन्त्रराज' कहलाता अनेक सुक्ष्म और रहस्यमय वाक्यों, शब्दखण्डों और
है । इसकी रचना नृसिंह द्वारा हुई थी तथा इसके साथ अक्षरों का प्रयोग होता है। उन्हें भी मन्त्र कहते हैं और और भी चार लघु मन्त्र हैं। विश्वास किया जाता है कि उनसे महान् शक्तियाँ और मन्त्रराजतन्त्र-'आगमतत्त्व विलास' में उद्धृत तन्त्रों की सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं।
तालिका में 'मन्त्रराजतन्त्र' का उल्लेख हआ है। मन्त्रकण्टकी-परम्परागत मान्यता है कि ऋषि, छन्द, मन्त्रार्थमञ्जरी-यह राघवेन्द्र स्वामी कृत सत्रहवीं शताब्दी देवता और विनियोग के बिना जाने वेदमन्त्रों का पढ़ना का एक ग्रन्थ है । इसमें मन्त्रों की अर्थ-पद्धति का निरूपण या पढाना दोषप्रद है । किस छन्द को किस ऋषि ने प्रकट किया गया है। किया, वह मन्त्र किस छन्द में है, अर्थात् वह कैसे पढ़ा मन्त्रिका उपनिषद् --यह परवर्ती उपनिषद् है । जायगा, उस मन्त्र में किस देवताविषयक वर्णन है और मन्थी-वैदिक संहिताओं में सोमरस एवं सक्तु का घोल उस मन्त्र का प्रयोग किस काम में होता है, इन बातों को मन्थी कहा गया है । इसका उपयोग यज्ञों में होता था । बिना जाने जो मन्त्रों का प्रयोग करते हैं वे 'मन्त्र कण्टको' मन्वारषष्ठी-माघ शुक्ल षष्ठी को इस व्रत का अनुष्ठान कहलाते हैं।
होता है । पंचमी को व्रती अत्यन्त लघु आहार करता है, मन्त्रकृत-ऋग्वेद (९.११४,२) तथा ब्राह्मणों (ऐतरेय षष्ठी को उपवास करते हुए मन्दार की प्रार्थना करता है । ६.१,१; पञ्च० १३.३,२४; तैत्ति० आ० ४.१) में मन्त्र अगले दिन वह मन्दार वृक्ष ( अर्क-आक का वृक्ष ) पर कृत ऋषिबोधक शब्द है । जिन ऋषियों को वेदों का केसर लगाता है तथा ताम्रपात्र में काले तिलों से अष्टदल साक्षात्कार हुआ था उनको मन्त्रकृत् कहते हैं।
कमल बनाता है । तदनन्तर मन्दार कुसुमों से प्रति दिशा मन्त्र कोश-शाक्त साहित्य से सम्बन्धित यह अठारहवीं की ओर अग्रसर होता हुआ सूर्य का भिन्न-भिन्न नामों से शताब्दी के उत्तरार्ध की रचना है।
पूजन करता है एवं मध्य में हरि भगवान् की कल्पना मन्त्रगुरु-साम्प्रदायिक देवमन्त्रों का प्रथम उपदेश करने करते हुए पूजन करता है । एक वर्ष तक प्रति शुक्ल पक्ष वाला मन्त्रगुरु कहा जाता है। आज भारत में मन्त्रगुरु की सप्तमी को इसी क्रम से पूजन चलता है । व्रत के अन्त का जो प्रचार है वह तान्त्रिकों के प्राधान्य काल में प्रच- में एक कलश में सुवर्ण की प्रतिमा डालार उसे दान कर
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