________________
मकुटआगम-मङ्गल
४८५
स्कन्दपुराण मकरसक्रान्ति पर तिलदान एवं गोदान को अधिक महत्त्व प्रदान करता है । मकुट आगम-यह एक रौद्रिक आगम है । मख-ऋग्वेद के सन्दर्भो में (९.१०१,१३) मख व्यक्ति- वाचक संज्ञा के रूप में प्रयुक्त है, किन्तु यह स्पष्ट नहीं है कि वह कौन व्यक्ति था। सम्भवतः यह किसी दैत्य का बोधक । है । अन्य संहिताओं में भी मखाध्यक्ष के रूप में यह उद्धृत है। इस का अर्थ ब्राह्मणों में भी स्पष्ट नहीं है (शत० ब्रा० १४.१,२,१७)। परवर्ती साहित्य में मख यज्ञ के पर्याय के रूप में प्रयुक्त होता रहा है ।। मग-विष्णुपुराण (भाग २.४,६९-७०) के अनुसार शाकद्वीपी ब्राह्मणों का उपनाम । पूर्वकाल में सीथिया या ईरान के पुरोहित 'मगी' कहलाते थे । भविष्यपुराण के ब्राह्मपर्व में कथित है कि कृष्ण के पुत्र साम्ब, जो कुष्ठरोग से ग्रस्त थे, सूर्य की उपासना से स्वस्थ हुए थे। कृतज्ञता प्रकट करने के लिए उन्होंने मुलतान में एक सूर्यमन्दिर बनवाया। नारद के परामर्श से उन्होंने शकद्वीप की यात्रा की तथा वहाँ से सूर्यमन्दिर में पूजा करने के लिए वे मग पुरोहित ले आये । तदनन्तर यह नियम बनाया गया कि सूर्यप्रतिमा की स्थापना एवं पूजा मग पुरोहितों द्वारा ही होनी चाहिए। इस प्रकार प्रकट है कि मग शाकद्वीपी और सूर्योपासक ब्राह्मण थे। उन्हीं के द्वारा भारत में सूर्यदेव की मूर्तिपूजा का प्रचार बढ़ा । इनकी मूल भूमि के सम्बन्ध में दे० 'मगध' । मगध-ऐसा प्रतीत होता है कि मूलतः मगध में बसनेवाली
आर्यशाखा मग थी। इसीलिए इस जनपद का नाम 'मगध' (मगों को धारण करनेवाला प्रदेश) पड़ा। इन्हीं की शाखा ईरान में गयी और वहाँ से शकों के साथ पुनः भारत वापस आयी। यदि मग मूलतः विदेशी होते तो भारत का पूर्वदिशा स्थित प्रदेश उनके नाम पर अति प्राचीन काल से मगध नहीं कहलाता ।
यह एक जाति का नाम है, जिसको वैदिक साहित्य में नगण्य महत्त्व प्राप्त है । अथर्ववेद (४.२२,१४) में यह उद्धृत है, जहाँ ज्वर को गन्धार, मूजवन्त (उत्तरी जातियों) तथा अङ्ग और मगध ( पूर्वी जातियों ) में भेजा गया है। यजुर्वेदीय पुरुषमेध की तालिका में अतिक्रुष्ट (हल्ला करने वाली) जातियों में मगध भी है।
मगध को व्रात्यों (पतितों) का देश भी कहा गया है।
स्मृतियों में 'मागध' का अर्थ मगध का वासी नहीं बल्कि वैश्य (पिता) तथा क्षत्रिय (माता) की सन्तान को मागध कहा गया है। ऋग्वेद में मगध देश के प्रति जो धणा का भाव पाया जाता है वह सम्भवतः मगधों का प्राचीन रूप कीकट होने के कारण है। ओल्डेनवर्ग का मत है कि मगध देश में ब्राह्मणधर्म का प्रभाव नहीं था। शतपथ ब्राह्मण में भी यही कहा गया है कि कोसल और विदेह में ब्राह्मणधर्म मान्य नहीं था तथा मगध में इनसे भी कम मान्य था । वेबर ने उपर्युक्त घृणा के दो कारण बतलाये हैं; (१) मगध में आदिवासियों के रक्त की अधिकता (२) बौद्धधर्म का प्रचार । दूसरा कारण यजुर्वेद या अथर्ववेद के काल में असम्भव जान पड़ता है, क्योंकि उस समय में बौद्ध धर्म प्रचलित नहीं था। इस प्रकार ओल्डेनवर्ग का मत ही मान्य ठहरता है कि वहाँ ब्राह्मणधर्म अपूर्ण रूप में प्रचलित था।
यह संभव जान पड़ता है कि कृष्णपुत्र साम्ब के समय में अथवा तत्पश्चात आने वाले कुछ मग ईरान अथवा पाथिया से भारत में आये हों। परन्तु मगध को अत्यन्त प्राचीन काल में यह नाम देने वाले मग जन ईरान से नहीं आये थे, वे तो प्राचीन भारत के जनों में से थे। लगता है कि उनकी एक बड़ी संख्या किसी ऐतिहासिक कारण से ईरान और पश्चिमी एशिया में पहुँची, परन्तु वहाँ भी उसका मूल भारतीय नाम मग 'मगी' के रूप में सुरक्षित रहा। आज भी गया के आस-पास मग ब्राह्मणों का जमाव है, जहाँ शकों का प्रभाव नहीं के बराबर था। मङ्गल-(१) 'आथर्वण परिशिष्ट' द्वारा निर्दिष्ट तथा हेमाद्रि, २.६२६ द्वारा उद्धृत आठ मांगलिक वस्तुएँ, यथा ब्राह्मण, गौ, अग्नि, सर्षप, शुद्ध नवनीत, शमी वृक्ष, अक्षत तथा यव । महा०, द्रोणपर्व (८२,२०-२२) में माङ्गलिक वस्तुओं की लम्बी सूची प्रस्तुत की गयी है। वायुपुराण (१४.३६-३७) में कतिपय माङ्गलिक वस्तुओं का परिगणन किया गया है, जिनका यात्रा प्रारम्भ करने से पूर्व स्पर्श करने का विधान है-यथा दूर्वा, शुद्ध नवनीत दधि, जलपूर्ण कलश, सवत्सा गौ, वृषभ, सुवर्ण, मृत्तिका, गाय का गोबर, स्वस्तिक, अष्ट धान्य, तैल, मधु, ब्राह्मण कन्याएँ, श्वेत पुष्प, शमी वृक्ष, अग्नि, सूर्यमण्डल, चन्दन तथा पीपल वृक्ष ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org