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भास्करानन्दनाथ-भीमद्वादशी
भास्कराचार्य या भट्ट भास्कर । इसकी महत्ता इनके भेदाभेद सं० ६.४,९,३; मैत्रा० सं० ४.६,२; शत० ब्रा० ४.१, दर्शन के कारण है। इन्होंने शङ्कर का नाम तो नहीं ५,१४) से आरम्भ होती है जहाँ भेषज-अभ्यास करने के लिया है किन्तु अपने भाष्य में उन पर बराबर आक्षेप किये कारण अश्विनों की निन्दा की गयी है । इस निन्दा का हैं । उदयनाचार्य ने कुसुमाञ्जलि ग्रन्थ में भास्कराचार्य कारण यह है कि अपने इस व्यवसाय के कारण उन्हें बहुत का विरोध किया है।
अधिक लोगों के पास जाना पड़ता है (यहाँ इतर जातियों निम्बार्क का भी एक अन्य नाम भास्कर था और उनका के घृणित लगाव या छूआ-छूत की ओर संकेत है)। भी दार्शनिक मत भेदाभेद है । इससे भास्कराचार्य तथा ऋग्वेद की एक ऋचा में एक भिषक् अपने पौधों तथा निम्बार्क के एक होने का भ्रम होता है। किन्तु प्रथम
उनकी आरोग्यशक्ति की प्रशंसा करता है (१०.९७) । के वेदान्त का विशुद्ध भाष्यकार तथा द्वितीय के साम्प्रदायिक अश्विनों द्वारा पंगु (ऋ० १.११२,८; १०.३९,३), अंधे वृत्तिकार होने के कारण दोनों का पार्थक्य स्पष्ट प्रतीत (ऋ० १.११६, १७) को अच्छा करने, वृद्ध च्यवन तथा होता है । निम्बार्क अवश्य भास्कर से परवर्ती आचार्य हैं. पुरन्धि के पति को युवा बनाने, विश्वपाला को लौहपाद क्योंकि राधा की उपासना ११०० ई० के बाद ही व्रज- (आयसी जङ्घा) प्रदान करने के चमत्कारों का वर्णन प्राप्त मण्डल में प्रचलित हुई, जो भास्कराचार्य के समय के बहत होता है। यह मानना भ्रमपूर्ण न होगा कि वैदिक आर्य बाद की घटना है।
शल्य चिकित्सा भी करते थे। वे अपने घावों पर सादी भास्करानन्दनाथ-दे० 'भास्करराय' ।
(एक पदार्थ से तैयार) औषध का प्रयोग भी करते थे। भिक्षा-शतपथ ब्राह्मण (११.३,३,६), आश्वलायन गृह्यसूत्र
उनकी शल्य चिकित्सा तथा औषधज्ञान का विकास हो (१.९), बृहदारण्यकोपनिषद् ( ३. ४, १; ४.४, २६ ) में
चुका था। अथर्ववेद के ओषधि वर्णन में वनस्पति तथा भिक्षा को ब्रह्मचारी के कर्तव्यों में कहा गया है । अथर्ववेद
जादमन्त्र का भी उल्लेख है, चिकित्सा और शरीर(११.५.९) में याचना से प्राप्त पदार्थ को भिक्षा कहा
विज्ञान का भी वर्णन है । ऋग्वेद में भेषजों के व्यवसाय गया है। छान्दोग्य ( ८.८.५ ) में भी इसका उपर्युक्त
के प्रमाण (९.११२) प्राप्त हैं। पुरुषमेध के बलिपशुओं अर्थ है, किन्तु वहाँ इसका शुद्ध उच्चारण सम्भवतः
में भिषक् का भी नाम आता है (वा० सं० ३०.१०%; आभिक्षा है।
तै० ब्रा० ३.४,४,१)। भिक्षु-भिक्षा माँगकर जीवन यापन करने वाला संन्यासी। भीमचन्द्र कवि-वीर शैव मतावलम्बी एक विद्वान् ।
आत्मा-परमात्मा के स्वरूप को जान लेने पर मनुष्य संसार इन्होंने १३६९ ई० में 'वसव पुराण' का अनुवाद तेलुगु से विरक्त होकर परमात्मा के चिन्तन में ही अपने को समर्पित भाषा में किया था। कर देता है । उस दशा में देहरक्षा के लिए भिक्षा माँगने भीमद्वादशी-(१) सर्वप्रथम इसकी कथा श्री कृष्ण ने भर को ही ऐसा व्यक्ति गृहस्थों के सम्पर्क में आता है। द्वितीय पाण्डव भीम को सुनायी थी। उसके बाद यह ऐसा परमात्मचिन्तनपरायण संन्यासी भिक्षु कहा जाता तिथि इसी नाम से विख्यात हो गयी। इससे पूर्व इसका है । दरिद्र या अभावग्रस्त होकर मांगने वाला व्यक्ति भिक्षु नाम कल्याणी था। मत्स्य पुराण ( ६९,१९-६५ ) नहीं, याचक कहलाता है। संसारत्यागी बौद्ध संन्यासी और पद्मपुराण २.२३ में इसका विशद विवेचन किया भी भिक्षु कहे जाते हैं।
गया है, जिसका अधिकांश भाग कृत्यकल्पतरु (३५४भिक्षुक उपनिषद्-एक परवर्ती उपनिषद्, जिसका सम्बन्ध ३५९) ने उद्धृत किया है तथा हेमाद्रि ( व्रतखण्ड संन्यासाश्रम से है।
१०४४-१०४९ पद्म से ) ने भी उद्धृत किया है। भिषक्-यह शब्द सभी वेदसंहिताओं में साधारणतः व्यव- माघ शुक्ल दशमी को स्नान करके शरीर पर घी लगाकर हृत हुआ है । प्रारम्भिक वैदिक ग्रन्थों में भिषककर्म
भगवान् विष्णु की 'नमो नारायणाय' मन्त्र से पूजा करनी असम्मानित नहीं था। अश्विनीकुमार, वरुण तथा रुद्र चाहिए । भगवान् के भिन्न-भिन्न शरीरावयवों का उनके सभी भिषक् कहे गये हैं। परन्तु धर्मसूत्रों में इस कार्य विभिन्न नामों (यथा केशव, दामोदर आदि) से पूजन की निन्दा हुई है। यह घृणा यजुर्वेद की कुछ सं० (तै० करना चाहिए। गरुड, शिव तथा गणेश के पूजन के
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