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भारतभावदीप-भारती
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संस्कृति भी उसके नाम पर भारती कहलायो । विष्णुपुराण । __ है, तथापि मुख्य अभिप्राय अद्वैत सम्प्रदाय के अनुकूल ही है । में भारत की सीमा इस प्रकार दी हुई है :
भारत संहिता-महर्षि जैमिनि को पूर्वमीमांसा दर्शन के उत्तरं यत्समुद्रस्य हिमाद्रेश्चैव दक्षिणम् ।
अतिरिक्त भारतसंहिता का भी रचयिता कहते हैं। इसका वर्ष तद् भारतं नाम भारती यत्र संततिः ॥
एक अन्य नाम 'जैमिनिभारत' है।
भारतधर्ममहामण्डल-१९वीं शताब्दी के आरम्भ में ईसाई मत [ हिमालय से समुद्र तक के उत्तर-दक्षिण भूभाग का
के प्रभाव ने हिन्दू विचारों पर गहरा आघात किया, जिसने नाम भारत है, इसमें भारती प्रजा रहती है । ] इसमें
मौलिक सिद्धान्तों पर पड़े आघातों के अतिरिक्त प्रतिक्रियासंतति की कल्पना सांस्कृतिक है, प्रजातीय नहीं। भार
रूप में हिन्दू मात्र की एकता को जन्म दिया। इसके फलतीय परम्परा ने रक्त और रङ्ग से ऊपर उठकर सदा
स्वरूप 'भारतधर्ममहामण्डल' जैसी संस्थाओं की स्थापना भावनात्मक एकता पर बल दिया है।
हुई और हिन्दुत्व की रक्षा के लिए संघटनात्मक प्रयत्न भारत की संस्कृति अति प्राचीन है। इसकी परम्परा
होने लगे । महामण्डल का मुख्य अधिष्ठान काशी में है। में सृष्टि का वर्णन सबसे निराला है । फिर मन्वन्तर और
इसके संस्थापक वंगदेशीय स्वामी ज्ञानानन्दजी थे। महाराजवंशों का वर्णन जो कुछ है वह भारतवर्ष के भीतर
मण्डल के मुख्य तीन उद्देश्य रखे गये : (१) हिन्दुत्व की का है। चर्चा विविध द्वीपों और देशों की है सही, परंतु
एकता और उत्थान (२) इस कार्य के सम्पादन के लिए राजवंशों का जहाँ कहीं वर्णन है उसकी भारतीय सीमा उपदेशकों का संघटन और (३) हिन्दूधर्म के सनातन तत्त्वों निश्चित है। महाभारत के संग्राम में चीन, तुर्किस्तान
के प्रचारार्थ उपयुक्त साहित्य का निर्माण । अब मण्डल आदि सभी पास के देशों की सेना आयी दीख पड़ती है,
महिलाशिक्षण कार्य की ओर अग्रसर है । पाण्डवों और कौरवों की दिग्विजय में वर्तमान भारत के भारतवर्षीय ब्राह्मसमाज-राजा राममोटन गा बाहर के देश भी सम्मिलित थे, परन्तु कर्मक्षेत्र भारत की
संस्थापित धर्मसुधारक समिति । ब्राह्मसमाज आगे चलकर पुण्यभूमि ही है। इसके पर्वत, वन, नदी-नाले, वृक्ष,
दो समाजों में बँट गया : आदि ब्राह्मसमाज एवं भारतपल्लव, ग्राम, नगर, मैदान, यहाँ तक कि टीले भी पवित्र
वर्षीय ब्राह्मसमाज । यह घटना ११ नवम्बर सन् १८६६ तीर्थ हैं । द्वारका से लेकर प्राग्ज्योतिष तक, बदरी-केदार
की है, जिस समय केशवचन्द्र सेन ब्राह्मसमाज के से लेकर कन्याकुमारी या धनुष्कोटि तक, अपितु सागर मन्त्री बने । आदि ब्राह्मसमाज देवेन्द्रनाथ ठाकुर द्वारा तक आदि सीमा और अन्त सीमा, तीर्थ और देवस्थान हैं।
व्यवस्थापित नियमों को मान्यता देता था, और भारतवर्षीय यहाँ के जलचर, स्थलचर, गगनचर, सबमें पूज्य और ब्राह्मसमाज के विचार अधिक उदार थे। इसमें साधारण पवित्र भावना वर्तमान है। लोग देश से प्रेम करते है।
प्रार्थना तथा स्तुतिपाठ के साथ-साथ हिन्दू, ईसाई, हिन्दू अपनी मातृभूमि को पूजते हैं।
मुस्लिम, जोरोष्ट्रियायी तथा कनफ्यूशियस के ग्रन्थों का भी भारतीय हिन्दू परम्परा अपना आरम्भ सृष्टिकाल से पाठ होता था। केशवचन्द्र ने इसे हिन्दू प्रणाली की सीमा से ही मानती है। उसमें कहीं किसी आख्यान से, किसी चर्चा ऊपर उठाकर मानववादी धर्म के रूप में बदल दिया। से, किसी वाक्य से यह सिद्ध नहीं होता कि आर्य जाति फलतः भारतवर्षीय ब्राह्मसमाज की सदस्यता देश के कहीं बाहर से इस देश में आयी । अर्थात् परम्परानुसार कोने-कोने में फैल गयी तथा आदि ब्राह्मसमाज इसकी ही इस भारत देश के आदिवासी आर्य है।
तुलना में सीमित रह गया । परन्तु ब्राह्मसमाज जितना भारतभावदीप-नीलकण्ठ सूरि (सोलहवीं शताब्दी) महाभारत सुधारवादी बना, उतना ही अपनी मूल परम्परा से दूर के प्रसिद्ध टीकाकार हैं । इस टीका का नाम भारतभाव- होता गया, इसकी जीवनी शक्ति क्षीण होती गयी और दीप है । इसके अन्तर्गत गीता की व्याख्या में अपनी टीका यह सूखने लगा । दे० 'ब्राह्मसमाज' ।। को सम्प्रदायानुसारी ( परम्परागत ) बतलाते हुए इन्होंने भारती-(१) सरस्वती का एक पर्याय । भारती का संबन्ध स्वामी शङ्कराचार्य एवं श्रीधरादि की वन्दना की है । इस वैदिक भरतों से प्रतीत होता है। भरतों के सांस्कृतिक व्याख्या में कहीं-कहीं शाङ्करभाष्य का अतिक्रमण भी हुआ अवदान का व्यक्तीकरण ही भारती है।
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