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भट्ट (कुमारिल)-भद्रकालीन
संबन्धित रहते हैं। उत्तर भारत में सूर, तुलसी, कबीर व्यापार है। इनके अतिरिक्त उन्होंने 'तत्त्वकौस्तुभ' और तथा मोरा के भजन अधिक प्रचलित हैं।
'वेदान्ततत्त्वविवेक टीकाविवरण' नामक दो वेदान्त भट्ट (कुमारिल)-दे० 'कुमारिल' ।
ग्रन्थ भी रचे थे। इनमें से केवल तत्त्वकौस्तुभ प्रकाशित भट्ट (दिनकर)-कर्ममीमांसा के १७वीं शताब्दी में उत्पन्न हुआ है। इसमें द्वैतवाद का खण्डन किया गया है। कहा एक आचार्य । इन्होंने पार्थसारयि मिश्र की शास्त्रदीपिका जाता है कि शेष कृष्ण दीक्षित से अध्ययन के नाते मानसपर 'भाद्र दिनकर' नामक भाष्य रचा है।
कार तुलसीदासजी इनके गुरुभाई थे। भट्टोजि शुष्क भट (नीलकण्ठ)-(१) १५वीं या १६वीं शताब्दी में वैयाकरण के साथ ही सरस भगवद्भक्त भी थे । व्याकरण उत्पन्न, शाक्त मत के आचार्य । इन्होंने 'देवी भागवत के सहस्रों उदाहरण इन्होंने राम-कृष्णचरित्र से ही निर्मित उपपुराण' के ऊपर तिलक नामक व्याख्या रची है । (२) किये हैं। 'मयूख' नामक धर्मशास्त्र निबन्ध के प्रसिद्ध रचयिता। भद्र आगम--यह एक शैव आगम है । दे० 'नीलकण्ठ भट्ट' ।
भद्रकालो-काली के सौम्य या वत्सल रूप को राख्या या भट्ट (भास्कर मिश्र)-स्मार्त साहित्य के निपुण लेखक ___भद्रकाली कहते हैं, जो प्रत्येक बंगाली गाँव की रक्षिका भट्ट भास्कर मिश्र के कृष्ण यजुर्वेदीय तैत्तिरीय संहिता, होती है । महामारी आरम्भ होने पर इसके सम्मुख प्रार्थना आरण्यक एवं उपनिषदों पर रचे गये भाष्य वैदिक साहित्य व यज्ञ किये जाते हैं । काली को उदार रूप में सभी जीवों के महत्त्वपूर्ण अंग हैं। भट्टजी तेलुगु प्रदेश के रहने वाले की माता, अन्न देने वाली, मनुष्य व जन्तुओं में उत्पादन थे तथा तैत्तिरीय संहिना की आत्रेय शाखा के अनुयायी शक्ति उत्पन्न करने वाली मानते हैं । इसकी पूजा फल-फूल, थे। इस संहिता का भाष्य इन्होंने ११८८ ई० में दुग्ध, पृथ्वी से उत्पन्न होने वाले पदार्थों से ही की जाती रचा था।
है । इसकी पूजा में पशुबलि निषिद्ध है। भट्टोजिदीक्षित-चतुर्मुखी प्रतिभाशाली सुप्रसिद्ध वैयाकरण । भद्रकालीनवमी-चैत्र शुक्ल नवमी को इस व्रत का अनुइनकी रची हुई सिद्धान्तकौमुदी, प्रौढमनोरमा, शब्द- __ष्ठान होता है । इसमें उपवास तथा पुष्पादिक से भद्रकाली कौस्तुभ आदि कृतियाँ दिगन्तव्यापिनी कीतिकौमुदी का देवी की पूजा का विधान है। विकल्प से समस्त मासों की विस्तार करने वाली हैं। वेदान्त शास्त्र में ये आचार्य नवमियों को भद्रकाली देवी की पूजा होनी चाहिए। दे० अप्पय दीक्षित के शिष्य थे। इनके व्याकरण के गुरु नीलमतपुराण, ६३, श्लोक ७६२-६३ । 'प्रक्रियाप्रकाशकार शेष कृष्ण दीक्षित थे । भट्रोजिदीक्षित भद्रकालीपूजा-राजा-महाराजाओं के शान्तिक-पौष्टिक कर्मों की प्रतिभा असाधारण थी। इन्होंने वेदान्त के साथ ही के लिए 'राजनीतिप्रकाश' में इस पूजा के लिए अनुरोध धर्मशास्त्र, नीतिशास्त्र, उपासना आदि पर भी मर्मस्पर्शी किया गया है। इसका विधान ठीक उसी प्रकार है जैसा ग्रन्थ रचना की है। एक बार शास्त्रार्थ के समय उन्होंने भद्रकालीव्रत में कहा गया है। पण्डितराज जगन्नाथ को म्लेच्छ कह दिया था। इससे भद्रकाली व्रत-(१) कार्तिक शुक्ल नवमी को इस व्रत का पण्डितराज का इनके प्रति स्थायी वैमनस्य हो गया और आरम्भ होता है। उस दिन उपवास रखा जाता है। उन्होंने 'मनोरमा' का खण्डन करने के लिए 'मनोरमा- इसकी भद्रकाली (अथवा भवानी) देवी हैं। एक वर्ष तक कुचमर्दिनी' नामक टीकाग्रन्थ की रचना की। पण्डित- प्रति मास की नवमी को देवीजी का पूजन होता है । राज उनके गुरुपुत्र शेष वीरेश्वर दीक्षित के पुत्र थे। वर्ष के अन्त में किसी ब्राह्मण को दो वस्त्र दान में दिये
भट्टोजिदीक्षित के रचे हुए ग्रन्थों में वैयाकरणसिद्धान्त- जाते हैं । इसके आचरण से समस्त कामनाओं की सिद्धि कौमुदी और प्रौढमनोरमा अति प्रसिद्ध हैं । सिद्धान्तकौमुदी होती है। जैसे रोगों से मुक्ति, पुत्रलाभ तथा यश की पाणिनीय सूत्रों की वृत्ति है और मनोरमा उसकी व्याख्या। उपलब्धि । तीसरे ग्रन्थ शब्दकौस्तुभ में इन्होंने पातञ्जल महाभाष्य (२) आश्विन शुक्ल नवमी को प्रासाद की किसी के विषयों का युक्तिपूर्वक समर्थन किया है। चौथा ग्रन्थ प्राचीर (बाहरी दीवार) अथवा किसी वस्त्र के टुकड़े पर वैयाकरणभूषण है। इसका प्रतिपाद्य विषय भी शब्द- भद्रकाली की मूर्ति बनाकर आयुधों (ढाल, तलवार आदि)
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