________________
भद्रविधि-भरत
४६९
सहित देवी का उपवासपूर्वक पूजन होता है। इस व्रत से मनुष्य समृद्धि तथा सफलताएँ प्राप्त करता है। भद्रनारायण-गोभिलगृह्यसूत्र (सामवेदीय) के एक वृत्तिकार। भद्रविधि-भाद्र शुक्ल षष्ठी को पड़ने वाला रविवार भद्र कहलाता है। उस दिन व्रती को 'नक्तविधि' से आहार करना चाहिए अथवा उपवास रखना चाहिए । मालती के फूल, चन्दन, विजय धूप तथा पायस को (नैवेद्य के रूप में) मध्याह्न काल में सूर्य की पूजा में अर्पण करना चाहिए। यह वारव्रत है। व्रतोपरान्त ब्राह्मण को दक्षिणा देनी चाहिए । इस व्रत से व्रती सूर्यलोक को प्राप्त करता है। भद्रा-सात करणों में एक करण । प्रति दिन के पञ्चाङ्ग का एक अवयव करण है, जो तिथि का आधा भाग होता है । भद्रा को विष्टि भी कहते हैं । भद्रा नाम के विपरीत इसमें शुभ कर्म वर्जित है। विभिन्न राशियों के अनुसार यह तीनों लोकों में विचरण करती है और 'मृत्युलोके यदा भद्रा सर्वकार्यविनाशिनी' होती है। भद्राचल-महाराष्ट्र प्रदेश में गोदावरी के तट पर स्थित सुरम्य तीर्थस्थान। यहाँ भगवान् श्री राम का प्राचीन मंदिर है। इसकी यहाँ बहुत प्रतिष्ठा है। कहा जाता है, इसे समर्थ गुरु रामदास ने स्थापित किया था। भद्राविधि-कार्तिक शुक्ल तृतीया के दिन व्रती को चाहिए कि गोमूत्र तथा यावक (जौ से बनायी हुई लपसी) का सेवन करने के बाद नक्तविधि से आहार करे। प्रति मास के क्रम से इस व्रत को वर्ष भर चलाना चाहिए। वर्ष के अन्त में गौ का दान विहित है। इस व्रत के आचरण से एक कल्प तक गौरीलोक में वास होता है। भवासप्तमी-शुक्ल पक्ष की सप्तमी को हस्त नक्षत्र हो तो वह तिथि भद्रा कहलाती है। यह तिथिव्रत है। इसके सूर्य देवता हैं । व्रतेच्छु व्यक्ति को चतुर्थी तिथि से क्रमशः एकभक्त, नक्त, अयाचित तथा उपवास का आचरण करना चाहिए । फिर सूर्यप्रतिमा को घृत, दुग्ध तथा गन्ने के रस से स्नान कराकर षोडशोपचार पूजन करके प्रतिमा के समीप अमूल्य रत्न विभिन्न दिशाओं में रख देने चाहिए। व्रती इस व्रत के आचरण से सूर्यलोक और अन्त में ब्रह्मलोक में पहुँच जाता है। भरत-(१) अभिजात क्षत्रिय वर्ग का एक वेदकालीन कबीला। ऋग्वेद तथा अन्य परवर्ती वैदिक साहित्य में भरत एक
महत्त्वपूर्ण कुल का नाम है । ऋग्वेद के तीसरे और सातवें मण्डल में ये सुदास एवं त्रित्सु के साथ तथा छठे मण्डल में दिवोदास के साथ उल्लिखित हैं। इससे लगता है कि ये तीनों राजा भरतवंशी थे। परवर्ती साहित्य में भरत लोग और प्रसिद्ध हैं। शत० ब्रा० (१३.५.४) अश्वमेध यज्ञकर्ता के रूप में भरत दौष्यन्ति का वर्णन करता है । एक अन्य भरत शतानीक सामाजित का उल्लेख मिलता है, जिसने अश्वमेध यज्ञ किया। ऐत० ब्रा० (८.२३,२१) भरत दौष्यन्ति को दीर्घतमा मामतेय एवं शतानीक को सोमशुष्मा वाजप्यायन द्वारा अभिषिक्त किया गया वर्णन करता है। भरतों की भौगोलिक सीमा का पता उनकी काशी विजय तथा यमुना और गङ्गा तट पर यज्ञ करने से चलता है । महाभारत में कुरुओं को भरतकुल का कहा गया है। इससे ज्ञात होता है कि ब्राह्मणकाल में भरत लोग कुरु-पञ्चाल जाति में मिल गये थे।
भरतों की याज्ञिक क्रियाओं का पञ्चविंश ब्रा० (१४.३, १३; १५.५,२४) में बार-बार उल्लेख आता है। ऋग्वेद (२.७.१,५; ४.२५.४,५.१६,१९; तै० सं० २.५,९,१; शत० ब्रा० १.४,२,२) में भारत अग्नि का उल्लेख आया है। रॉथ महाशय इस अग्नि से भरतों के योद्धा रूप की अभिव्यक्ति मानते हैं, जो सम्भव नहीं। ऋचाओं (ऋ० १.२२,१०; १.४२,९; १.८८,८; २.१,११; ३,८; ३.४,८ आदि) में भारती देवी का उल्लेख है जो भरतों की दैवी रक्षिका शक्ति है। उसका सरस्वती से सम्बन्ध भरतों को सरस्वती से सम्बन्धित करता है।
इस महाद्वीप का भरतखण्ड तथा देश का भारतवर्ष नामकरण भरत जाति के नाम पर ही हआ है । ऋषभदेव के पुत्र भरत अथवा दौष्यन्ति भरत के नाम पर देश का नाम भारत होने की परम्परा परवर्ती है।
(२) अयोध्या के राजा दशरथ के चार पुत्रों में द्वितीय भरत कैकेयी से उत्पन्न हुए थे। राम के वन जाने पर ये उनको वापस लाने के लिए चित्रकूट गये थे। उनके वापस न आने पर उनकी खड़ाऊँ राजसिंहासन पर रखकर उनकी ओर से ये राज्य का शासन करते रहे। चौदह वर्ष का वनवास समाप्त होने पर जब राम अयोध्या वापस आये तब भरत ने उनको राज्य समर्पित कर दिया।
(३) गान्धर्व वेद के चार प्रसिद्ध प्रवर्तकों में से एकः नाट्य उपवेद के आचार्य, इनका 'भरतनाट्यशास्त्र' संगीत
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org