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ब्रह्मसम्प्रदाय-ब्रह्मसूत्रभाष्य
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द्वीप हैं जिनमें प्राचीन मन्दिर तथा ऐतिहासिक स्थान हैं। श्रुतियों का समन्वय ब्रह्म में किया गया है। दूसरे छोटे द्वीप में गरुड़ सहित भगवान् विष्णु का मन्दिर है अध्याय का साधारण नाम 'अविरोध' है। इसके प्रथम जो पुल द्वारा श्रवणनाथ मठ से मिला हुआ है । एक बड़ा पाद में स्वमतप्रतिष्ठा के लिए स्मृति-तर्कादि विरोधों का पुल बड़े द्वीप के मध्य से होकर दक्षिणी तट से उत्तरी तट परिहार किया गया है । द्वितीय पाद में विरुद्ध मतों के प्रति को मिलाता है । इस द्वीप में आमों के बगीचे, प्राचीन दोषारोपण किया गया है। तृतीय पाद में ब्रह्म से तत्वों मन्दिर तथा भवनों के भग्नावशेष है। चन्द्रकूप का अति की उत्पत्ति कही गयी है और चतुर्थ पाद में भूतविषयक प्राचीन स्थान है । पुराणों में वर्णन मिलता है कि महा- श्रुतियों का विरोधपरिहार किया गया है। भारत काल के पहले ब्रह्मसर नामक सरोवर महाराज तृतीय अध्याय का साधारण नाम 'साधन' है। इसमें कुरु ने निर्मित कराया था। (वामनपुराण, अध्याय २२,
जीव और ब्रह्म के लक्षणों का निर्देश करके मुक्ति के श्लोक १४)।
बहिरंग और अन्तरंग साधनों का निर्देश किया गया है। इस सरोवर के आस-पास कुछ आधुनिक भवनों का
चतुर्थ अध्याय का नाम 'फल' है। इसमें जीवन्मुक्ति, जीव निर्माण हो गया है, जैसे कालीकमली वाले की धर्मशाला,
की उत्क्रान्ति, सगुण और निर्गुण उपासना के फलतारश्रवणनाथ की हवेली, गौडीय मठ, कुरुक्षेत्र जीर्णोद्धार
तम्य पर विचार किया गया है। ब्रह्मसूत्र पर सभी वेदासोसाइटी ( जिसे गीताभवन कहते हैं ), गीतामन्दिर,
न्तीय सम्प्रदायों के आचार्यों ने भाष्य, टीका व वृत्तियाँ गुरुद्वारा और गुरु नानक की स्मृति में और एक गुरुद्वारा
लिखी हैं। इनमें गम्भीरता, प्राञ्जलता, सौष्ठव और बन गया है।
प्रसाद गुणों की अधिकता के कारण शाङ्कर भाष्य सर्वश्रेष्ठ ब्रह्मसम्प्रदाय-माध्व सम्प्रदाय का एक नाम ।
स्थान रखता है। इसका नाम 'शारीरक भाष्य' है । ब्रह्मसावित्रीव्रत-भाद्रपद शुक्ल त्रयोदशी को इस व्रत
ब्रह्मसूत्र का अणुभाष्य-शुद्धाद्वैतवाद के प्रतिष्ठापक वल्लभाका अनुष्ठान होता है। व्रती को तीन दिन तक उपवास
चार्य (१४७९-१५३१ ई०) ने इसकी रचना को । ब्रह्मसूत्र करना चाहिए। यदि ऐसा करने की सामर्थ्य न हो तो
(वेदान्तसूत्र) के मूल पाठ की तुलनात्मक व्याख्या पर ही त्रयोदशी को अयाचित, चतुर्दशी को नक्त पद्धति तथा
वल्लभ का विशेष बल है। अतः सूत्रों का घनिष्ठ अनुसारी पूर्णिमा को उपवास रखा जाय । सुवर्ण, रजत अथवा
होने के कारण, कुछ लोगों के विचार से वल्लभ का भाष्य मृन्मयी ब्रह्मा तथा सावित्री की प्रतिमाएँ वनवाकर उनका
'अनुभाष्य' कहलाता है । वे स्वयं कहते हैं : पूजन किया जाय । पूर्णिमा की रात्रि को जागरण तथा
सन्देहवारकं शास्त्रं बुद्धिदोषात्तद्भवः । उत्सव करना चाहिए । दूसरे दिन प्रातः सुवर्ण की दक्षिणा सहित प्रतिमाएँ दान में दे दी जायँ । दे० हेमाद्रि, २.२५८
विरुद्धशास्त्रसंभेदाद् अङ्गश्चाशक्यनिश्चयः ।। २७२ (भविष्योत्तर पुराण से)। यह वट-सावित्रीव्रत के तस्मात्सूत्रानुसारेण कर्तव्यः सर्वनिर्णयः । समान है । केवल तिथि तथा सावित्री की कथा हेमाद्रि में
अन्यथा भ्रश्यते स्वार्थान्मध्यमश्च तथाविधैः ।। कुछ विस्तार से बतलायी गयी है ।
___ (अणुभाष्य, चौखम्बा सं०, पृ० २०) ब्रह्मसिद्धि-वेदान्त का एक प्रसिद्ध ग्रन्थ । शंकराचार्य के ब्रह्मसूत्रदीपिका-महात्मा शङ्करानन्द (विद्यारण्यस्वामी के शिष्य सुरेश्वराचार्य (भूतपूर्व मण्डन मिथ) द्वारा रचित यह शिक्षागुरु) ने, जो १४वीं शताब्दी में विशिष्ट अद्वैतवादी ग्रन्थ अद्वैत वेदान्त मत का समर्थक है।
विद्वान् हो गये हैं, शाङ्कर मत को पुष्ट और प्रचारित ब्रह्मसूत्र-वेदान्त शास्त्र अथवा उत्तर ( ब्रह्म) मीमांसा का करने के लिए ब्रह्मसूत्रदीपिका नामक ग्रन्थ की रचना
आधार ग्रन्थ । इसके रचयिता बादरायण कहे जाते की। इसमें उन्होंने बड़ी सरल भाषा में शाङ्कर मतानुसार है । इनसे पहले भी वेदान्त के आचार्य हो गये हैं, सात ब्रह्मसूत्र की व्याख्या की है। आचार्यों के नाम तो इस' ग्रन्थ में ही प्राप्त हैं। इसका ब्रह्मसूत्रभाष्य (अनेक)-शंकराचार्य के पश्चाद्भावी सभी विषय है बह्म का विचार । ब्रह्मसूत्र के प्रथम अध्याय का प्रमुख वैदिक सम्प्रदायाचार्यों ने अपने-अपने मतों के स्थापनाम 'समन्वय' है, इसमें अनेक प्रकार की परस्पर विरुद्ध नार्थ ब्रह्मसूत्र पर भाष्यों की रचना की है। उनमें विशिष्टा
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