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वचनों का संक्षिप्त विवरण दिया गया है। इसमें ब्रह्मपासना, सेवा का क्रम, उपनिषदों के कुछ उद्धरण और कुछ धार्मिक प्रन्थों के उदरणों के साथ अन्त में देवेन्द्रनाथ द्वारा ब्राहा सिद्धान्त को व्याख्या की गयी है। ब्रह्मोदन पतकर्म के अन्तर्गत वेदसंहिताओं तथा ब्राह्मण ग्रन्थों के पारायण में भाग लेनेवाले पुरोहितों के निवेश के लिए उबाला हुआ चावल ( ओदन) ब्रह्मोदन कहलाता या । इसके पकाने की विशेष विधि थी ।
ब्राह्मण - ब्रह्म = वेद का पाठक अथवा ब्रह्म = परमात्मा का ज्ञाता । ऋग्वेद को अपेक्षा अन्य संहिताओं में यह साधारण प्रयोग का शब्द हो गया, जिसका अर्थ पुरोहित है। ऋग्वेद के पुरुषसूक्त (१०.९०) में वर्णों के चार विभाजन के सन्दर्भ में इसका जाति के अर्थ में प्रयोग हुआ है। वैदिक ग्रन्थों में यह वर्ष अत्रियों से ऊँचा माना गया है राजसूय यज्ञ में ब्राह्मक्षत्रिय को कर देता था, किन्तु इससे शतपथ में ब्राह्मण की श्रेष्ठता न्यून नहीं होती । इस बात को बार-बार कहा गया है कि क्षत्रिय तथा ब्राह्मण की एकता से ही सर्वाङ्गीण उन्नति हो सकती है। यह स्वीकार किया गया है कि कतिपय राजन्य एवं धनसम्पन्न लोग ब्राह्मण को यदि कदाचित् दबाने में समर्थ हुए हैं, तो उनका सर्वनाश भी शीघ्र ही घटित हवा है। ब्राह्मण पृथ्वी के देवता ( भूसुर ) कहे गये हैं, जैसे कि स्वर्ग के देवता होते हैं ।
ऐतरेय ब्राह्मण में ब्राह्मण को दान लेने वाला (आदायी तथा सोम पीने वाला ( आपायी ) कहा गया हैं । उसके दो अन्य विरुद 'आवसायी' तथा 'यथाकामप्रयाप्य' का अर्थ अस्पष्ट है । पहले का अर्थ सब स्थानों में रहने वाला तथा दूसरे का आनन्द से घूमने वाला हो सकता है ( ऐ० ७.२९, २) शतपथ ब्रा० में ब्राह्मण के कर्तव्यों की चर्चा करते हुए उसके अधिकार इस प्रकार कहे गये हैं: ( १ ) अर्चा ( २ ) दान ( ३ ) अजेयता तथा ( ४ ) अवध्यता । उसके कर्तव्य हैं : ( ५ ) ब्राह्मण्य ( वंश की पवित्रता ) (६) प्रतिरूपचर्या कर्तव्य पालन ) तथा ( ७ ) लोकपक्ति (लोक को प्रबुद्ध करना) । ब्राह्मण स्वयं की ही संस्कृत करके विश्राम नहीं लेता था, अपितु दूसरों को भी अपने गुणों का दान आचार्य अथवा पुरोहित के रूप में करता था। आचार्यपद से
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ब्रह्मोदन ब्राह्मण
ब्राह्मण का अपने पुत्र को अध्ययन तथा याज्ञिक क्रियाओं में निपुण करना एक विशेष कार्य था ( शत० ब्रा० १,६, २,४ ) । उपनिषद् ग्रन्थों में आरुणि एवं श्वेतकेतु ( बृ० उ० ६,१,१ ) तथा वरुण एवं भृगु का उदाहरण है ( श०
० ११,६,१,१) । आचार्य के अनेकों शिष्य होते थे तथा उन्हें वह धार्मिक तथा सामाजिक प्रेरणा से पढ़ाने को बाध्य होता था । उसे प्रत्येक ज्ञान अपने छात्रों पर प्रकट करना पड़ता था । इसी कारण कभी कभी छात्र आचार्य को अपने में परिवर्तित कर देते थे, अर्थात् आचार्य के समान पद प्राप्त कर लेते थे । अध्ययनकाल तथा शिक्षणप्रणाली का सूत्रों में विवरण प्राप्त होता है ।
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पुरोहित के रूप में ब्राह्मण महायज्ञों को साधारण गृह्ययज्ञ बिना उसको सहायता के थे, किन्तु महत्वपूर्ण क्रियाएँ (श्रीत ) उसके बिना नहीं सम्पन्न होती थीं क्रियाओं के विधिवत् किये जाने पर जो धार्मिक लाभ होता था उसमें दक्षिणा के अतिरिक्त पुरोहित यजमान का साझेदार होता था । पुरोहित का स्थान साधारण धार्मिक की अपेक्षा सामाजिक भी होता वा वह राजा के अन्य व्यक्तिगत कार्यों में भी उसका प्रतिनिधि होता था। राजनीति में उसका बड़ा हाथ रहने
लगा था ।
स्मृतिग्रन्थों में ब्राह्मणों के मुख्य छः कर्तव्य ( षट्कर्म ) बताये गये हैं— पठन-पाठन, यजनयाजन और दानप्रतिग्रह | इनमें पठन, यजन और दान सामान्य तथा पाठन, याजन तथा प्रतिग्रह विशेष कर्तव्य हैं ।
आपद्धर्म के रूप में अन्य व्यवसाय से भी ब्राह्मण निर्वाह कर सकता था, किन्तु स्मृतियों ने बहुत से प्रतिवन्ध लगाकर लोग और हिसावाले कार्य उसके लिए वर्जित कर रखे हैं ।
ब्राह्मणों का वर्गीकरण इस समय देशभेद के अनु सार ब्राह्मणों के दो बड़े विभाग हैं : पञ्चगौड और पञ्चदक्षिण पश्चिम में अफगानिस्तान का गोर देश, पञ्जाब, जिसमें कुरुक्षेत्र सम्मिलित है, गोंड़ा-बस्ती जनपद, प्रयाग के दक्षिण व आसपास का प्रदेश, पश्चिमी बंगाल, ये पाँचों प्रदेश किसी न किसी समय पर गौड़ कहे जाते रहे हैं । इन्हीं पाँचों प्रदेशों के नाम पर सम्भवतः सामूहिक नाम 'पञ्च गौड़' पड़ा आदि गौड़ों का उद्गम कुरुक्षेत्र है ।
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