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में हुई, जो सबसे अधिक प्रसिद्ध है यह 'भक्तमाल' के ढंग की ही रचना है ।
भक्तविजय - महीपतिरचित मराठी भाषा का भक्तिविषयक ग्रन्थ । रचनाकाल १७६२ ई० है ।
भक्ति - भक्ति शब्द की व्युत्पत्ति 'भज्' धातु से हुई है, जिसका अर्थ सेवा करना या भजना है, अर्थात् श्रद्धा और प्रेमपूर्वक इष्टदेव के प्रति आसक्ति नारदभक्तिसूत्र में भक्ति को परम प्रेमरूप और अमृतस्वरूप कहा गया है; इसको प्राप्त कर मनुष्य कृतकृत्य, संतृप्त और अमर हो जाता है । व्यास ने पूजा में अनुराग को भक्ति कहा है । गर्ग के अनुसार कथा श्रवण में अनुरक्ति ही भक्ति है । भारतीय धार्मिक साहित्य में भक्ति का उदय वैदिक काल से ही दिखाई पड़ता है। देवों के रूपदर्शन, उनकी स्तुति के गायन, उनके साहचर्य के लिए उत्सुकता, उनके प्रति समर्पण आदि में आनन्द का अनुभव सभी उपादान वेदों में यत्र-तत्र बिखरे पड़े हैं। ऋग्वेद के विष्णुसूक्त और वरुणसूक्त में भक्ति के मूल तत्त्व प्रचुर मात्रा में विद्यमान हैं । वैष्णवभक्ति की गंगोत्तरी विष्णुसूक्त ही है । ब्राह्मण साहित्य में कर्मकाण्ड के प्रसार के कारण भक्ति का स्वर कुछ मन्द पड़ जाता है, किन्तु उपनिषदों में उपासना की प्रधानता से निर्गुण भक्ति और कहीं-कहीं प्रतीकोपासना पुनः जागृत हो उठती है । छान्दोग्योपनिषद्, श्वेताश्वतरोपनिषद्, मुण्डकोपनिषद् आदि में विष्णु, शिव, रुद्र, अच्युत, नारायण, सूर्य आदि की भक्ति और उपासना के पर्याप्त संकेत पाये जाते हैं ।
वैदिक भक्ति की पयस्विनी महाभारत काल तक आतेआते विस्तृत होने लगी वैष्णव भक्ति की भागवतधारा का विकास इसी काल में हुआ । यादवों की सात्वत शाखा में प्रवृत्तिप्रधान भागवतधर्म का उत्कर्ष हुआ । सात्वतों ने ही मथुरा-वृन्दावन से लेकर मध्य भारत, राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र, कर्णाटक होते हुए तमिल (वि) प्रदेश तक प्रवृत्तिमूलक, रागात्मक भागवत धर्म का प्रचार किया। अभी तक वैष्णव अथवा शैव भक्ति के उपास्य देवगण अथवा परमेश्वर ही थे महाभारत काल में वैष्णव भागवत धर्म को एक ऐतिहासिक उपास्य का आधार कृष्ण वासुदेव के व्यक्तित्व में मिला । कृष्ण विष्णु के अवतार माने गये और धीरे-धीरे ब्रह्म से उनका तादात्म्य हो गया । इस प्रकार नर देणारी विष्णु की भक्ति जनसाधारण के
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भक्तविजय भक्ति
लिए सुलभ हो गयी। इससे पूर्व यह धर्म ऐकान्तिक, नाराणी, सात्वत आदि नामों से पुकारा जाता था । कृष्णवासुदेव भक्ति के उदय के पश्चात् यह भागवत धर्म कह लाने लगा । भागवत धर्म के इस रूप के उदय का काल लगभग १४०० ई० पू० है । तब से लेकर लगभग छठीसातवीं शताब्दी तक यह अविच्छिन्न रूप से चलता रहा। बीच में दीव-शाक्त सम्प्रदायों तथा शाङ्कर वेदान्त के प्रचार से भागवत धर्म का प्रचार कुछ मन्द पड़ गया । परन्तु पूर्व-मध्य युग में इसका पुनरुत्थान हुआ । भागवत धर्म का नवोदित रूप इसका प्रमाण है। रामानुज, मध्व आदि ने भागवत धर्म को और पल्लवित किया और आगे चलकर एकनाथ, रामानन्द, चैतन्य, वल्लभाचार्य आदि ने भक्तिमार्ग का जनसामान्य तक व्यापक प्रसार किया। मध्ययुग में सभी प्रदेशों के सन्त और भक्त कवियों ने भक्ति के सार्वजनिक प्रचार में प्रभूत योग दिया ।
मध्ययुग में भागवत भक्ति के चार प्रमुख सम्प्रदाय प्रवतित हुए (१) श्रीसम्प्रदाय ( रामानुजाचार्य द्वारा प्रचलित ) (२) ब्रह्मसम्प्रदाय ( मध्वाचार्य द्वारा प्रचलित ) (३) रुद्रसम्प्रदाय (विष्णु स्वामी द्वारा प्रचलित) और (४) सनका - दिसम्प्रदाय (निम्बार्काचार्य द्वारा स्थापित ) । इन सभी सम्प्रदायों ने अद्वैतवाद, मायावाद तथा कर्मसंन्यास का खण्डन कर भगवान् की सगुण उपासना का प्रचार किया। यह भी ध्यान देने की बात है कि इस रागात्मिका भक्ति के प्रवर्तक सभी आचार्य सुदूर दक्षिण देश में ही प्रकट हुए मध्ययुगीन भक्ति की उत्पत्ति और विकास का इति हास भागवत पुराण के माहात्म्य में इस प्रकार दिया
हुआ है :
उत्पन्ना द्रविडे साहं वृद्धि कर्णाटके गता । क्वचित् क्वचिन् महाराष्ट्र गुर्जरे जीर्णतां गता ॥ तत्र धोरकलेर्योगात् पाखण्ड खण्डिताङ्गका । दुर्बलाई चिरं जाता पुत्राभ्यां सह मन्यताम् ॥ वृन्दावनं पुनः प्राप्य नवीनेव सुरूपिणी । जाताहं युवती सम्यक् प्रेष्ठरूपा तु साम्प्रतम् ।। ( १.४८-५०) [ मैं वही ( जो मूलतः यादवों की एक शाखा के वंशज सात्वतों द्वारा लायी गयी थी) द्रविड प्रदेश में ( रागात्मक भक्ति के रूप में) उत्पन्न हुई। कर्नाटक में बड़ी हुई।
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