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भ-भक्तलीलामृत
प्रतिमा स्थापित करके उसका पूजन करना चाहिए । प्रथम भकत' लोग यदा-कदा शिष्यों के घर जाते हैं तथा उनसे चार दलों में पूर्व की ओर से ऋग्वेद तथा अन्य वेद; कुछ दक्षिणा या दण्ड वसूल करते हैं। यही इस सम्प्रदाय दक्षिण-पूर्व स्थल से मध्य बिन्दु वाले चार दलों पर वेद की जीविका होती है। (२) दुसाध नामक निम्न श्रेणी के अङ्ग, धर्मशास्त्र, पुराण तथा न्यायविस्तर की स्थापना की जाति उत्तर प्रदेश तथा बंगाल में पायी जाती है । करनी चाहिए। प्रतिमास की प्रथम तिथि को वर्ष भर ये लोग राहु की पूजा करते हैं तथा बर्ष में एक बार राहु उपर्युक्त ग्रन्थों की पूजा की जाय । वर्ष के अन्त में गौ का की प्रसन्नता के लिए यज्ञ करते हैं। राहपूजा बीमारियों दान विहित है । इस आचरण से व्रती परम वैदिक विद्वान् से मुक्ति या किसी मनोरथ की सिद्धि के लिए की जाती हो जाता है, यदि यह बारह वर्ष तक आचरण किया जाय है । इस यज्ञ के पुरोहित को 'भकत' कहते हैं, जो उनकी तो व्रती ब्रह्मलोक की प्राप्ति करता है।
जाति का ही होता है । उसे 'चतिया' भी कहते हैं। भकतसेवा-असम प्रदेश के वैष्णवों में महात्मा हरिदास
को उनके अनुयायी कृष्ण का अवतार मानते हैं, किन्तु इसके भ-व्यञ्जन वर्गों के पञ्चम वर्ग का चतुर्थ अक्षर । कामधेनु- साथ ही वे अन्य महात्मा शंकरदेव को भी विष्णु का तन्त्र में इसका स्वरूप निम्नांकित प्रकार से बतलाया गया है :
अवतार मानते हैं । उनमें 'भकतसेवा' की प्रथा है जिसके भकारं शृणु चार्वङ्गि स्वयं परमकुण्डली।
अनुसार ब्राह्मण अपने यजमानों अथवा शिष्यों से सब महामोक्षप्रदं वर्ण तरुणादित्य संप्रभम् ।।
प्रकार का दान ग्रहण करते हैं। पञ्चप्राणमयं वर्ण पञ्चदेवमयं सदा ॥
भक्तमाल-विष्णुभक्तों का चरित्र वर्णन करने वाले तन्त्रशास्त्र में इसके निम्नांकित नाम पाये जाते हैं :
भाषा ग्रन्थों में भक्तमाल (वैष्णव भक्तों की माला) महत्त्वभः क्लिन्नो भ्रमरो भीमो विश्वमूतिनिशा भवम् । पूर्ण प्रामाणिक रचना है । यह साम्प्रदायिक ग्रन्थ नहीं है । द्विरण्डो भूषणो मूलं यज्ञसूत्रस्य वाचकः ॥ चारों सम्प्रदायों और उनकी शाखाओं की महान् विभूनक्षत्रं भ्रमणा दीप्तिर्वयो भूमिः पयोनभः । तियों के जीवन की झांकियां इसमें उदारतापूर्वक प्रस्तुत नाभिर्भद्रं महाबाहुविश्वमूर्तिविताण्डकः ॥
हुई हैं । इसके रचयिता संत नारायणदास उपनाम नाभाजी प्राणात्मा तापिनी बचा विश्वरूपी च चन्द्रिका ।
स्वयं रामानन्दी वैष्णव थे । ये जयपुर के तीर्थस्थल भीमसेनः सुधासेनः सुखो मायापुरं हरः ॥ गलताजी के महात्मा कवि अग्रदासजी के शिष्य थे और भक्त-भक्तिमार्ग के सिद्धान्तानुसार भक्त उसे कहते हैं।
उन्हीं की आज्ञा से इन्होंने इस ग्रन्थ की रचना की थी। जिसने ईश्वर के भजन में अपना सम्पूर्ण जीवन समर्पित नाभाजी उस समय हुए थे, जब तुलसीदास जीवित थे, कर दिया हो । साधारण आत्माओं को चार भागों में प्रायः १५८५ तथा १६२३ ई० के मध्य । विभक्त किया गया है : (१) बद्ध, जो इस जीवन की सम- भक्तमाल व्रजभाषा के छप्पय छन्दों में रचित है, स्याओं से बँधा है। (२) मुमुक्षु, जिसमें मुक्ति की चेतना किन्तु बिना भाष्य के यह समझा नहीं जा सकता । इस पर जागृत हो, किन्तु उसके योग्य अभी नहीं है । (३) भक्त लगभग एक सौ तिलक (टीका) ग्रन्थ हैं। इनमें गौडीय अथवा केवली, जो मात्र ईश्वर की ही उपासना में लीन संत प्रियादासजी की पद्य टीका एवं अयोध्या के महात्मा हो, पवित्र हृदय का हो और जो भक्ति गुण के कारण रूपकलाजी की टीका प्रसिद्ध हैं । भक्तमाल में दो सौ मुक्ति के मार्ग पर चल रहा हो और (४) मुक्त, जो भग- भक्तों का चमत्कारपूर्ण जीवनचरित्र ३१६ छप्पय छन्दों वत्-पद को प्राप्त कर चुका हो ।
में वर्णित है । भक्तों का पूरा जीवनवृत्त इसमें नहीं दिया भकत-(१) संस्कृत शब्द भक्त का अपभ्रंश, जो अशिक्षित गया है, केवल उतना ही अंश है, जिससे भक्ति की महिमा ग्रामीण जनों में धार्मिक उपासक के लिए प्रयुक्त होता है। प्रकट हो । यथा असम प्रदेश के गृहस्थ वैष्णवों का सम्बन्ध किसी न भक्तलीलामृत-भक्तिविषयक मराठी ग्रन्थों में महीपति किसी देवस्थान से होता है, जिसके गुसाई उनको धर्म- द्वारा प्रणीत ग्रन्थों का बड़ा ही महत्त्वपूर्ण स्थान है । शिक्षा दिया करते हैं । इन गुसाइयों को 'भकत' कहते हैं। उनके ग्रन्थों में से 'भक्तलीलामृत' की रचना १७७४ ई०
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