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ब्राह्मसमाज-ब्राह्मीप्रतिपदलाभवत
भावना से तथा क्रोध से भरे रहते हैं । ऐसे प्रेतों के अनेक इतना विस्तृत कर दिया है कि उसके सदस्य मुसलमान और भेद है, इनमें एक जाति ब्राह्मण प्रेतों की है जिसे ईसाई भी हो सकते हैं । पादरियों द्वारा प्रचारित पाश्चात्य ब्रह्मराक्षस, ब्राह्मदैत्य, ब्राह्मपुरुष तथा प्रचलित भाषा में शिक्षा के फल से हिन्दू शिक्षित समाज जो अपनी संस्कृति 'ब्रह्म' कहते हैं। ये मारे गये ब्राह्मण होते हैं। दक्षिण और आचार-विचार से विचलित हो रहा था और जो भारत को मान्यतानुसार ब्राह्मपुरुष कंजूस ब्राह्मण शायद कभी-कभी पथभ्रष्ट होकर अपने पुरातन क्षेत्र से प्रेतात्मा को कहते हैं, जो अपने धन को बढ़ाने या एकत्र निकल कर विदेशी संस्कृति के क्षेत्र में बहक जाता था, करने के दुःख में मरा होता है । ऐसा दैत्य अपने घर में उसकी सामयिक रक्षा की गयी। ऐसा वर्ग बहुत उत्सुकताही चक्कर लगाता है तथा उस व्यक्ति पर आक्रमण कर पूर्वक ब्राह्मसमाज के अपने मनोनुकूल दल में सम्मिलित देता है जो उसका धन खर्च करता है, उसके वस्त्र पहनता हो गया । है या ऐसा काम करता है जो उसे पसन्द न हो।
राजा राममोहन राय के बाद महर्षि देवेन्द्रनाथ ब्राह्मसमाज--नवशिक्षित लोगों की एक धार्मिक संस्था । ठाकुर ब्राह्मसमाज के नेता हुए ।ये कुछ अधिक परम्पराउपनिषदों में जिसकी चर्चा है उसी एक ब्रह्म (परमात्मा) वादी थे, इसलिए इनके अनुयायी अपने को 'आदिब्राह्म' की उपासना को अपना इष्ट रखकर राजा राममोहन राय कहते थे । केशवचन्द्र सेन ने इनको अधिक सुधारवादी ने कलकत्ता में ब्राह्मसमाज की स्थापना की। इसके अन्तर्गत और सरल बनाकर 'नव ब्राह्मसमाज' का रूप दिया । इनके बिना किसी नबी, पैगम्बर, देवदूत आचार्य या पुरोहित को समय (संवत् १८९५-१९४०) में ब्राह्मसमाज का प्रचार अपना मध्यस्थ माने, सीधे अकेले ईश्वर की उपासना अधिक व्यापक हो गया। देश में प्रार्थनासमाज आदि ही मनुष्य का कर्तव्य माना गया। ईसाई महात्मा ईसा को
अनेक नामों से । इसकी स्थापना हुई और बड़ी संख्या में और मुसलमान मुहम्मद साहब को मध्यस्थ मानते हैं और
हिन्दू लोग इसके अनुयायी हो गये। ब्राह्मसमाज की यही उनके धर्म की नींव है। इस बात में ब्राह्मसमाज
स्थापना से राष्ट्ररक्षा के एक महान् उद्देश्य की पूर्ति हुई, उनसे आगे बढ़ गया । पुनर्जन्म का कोई प्रमाण न होने से अर्थात् राजा राममोहन राय की दूरदर्शिता ने बंगाल में जन्मान्तर का प्रश्न ही न छेड़ा गया। परमात्मा की
हिन्दूसमाज की बहुत बड़ी रक्षा की और नवशिक्षित प्राप्ति के सिवा कोई परलोक नहीं माना गया । निदान, लोगों को विधर्मी होने से उसी प्रकार बचा लिया, जिस 'मुसलमान और ईसाइयों से कहीं अधिक सरल और तर्क- प्रकार आर्यसमाज ने पश्चिमोत्तर भारत में हिन्दुओं को संगत यह मत स्थापित हुआ। मन्दिर, मस्जिद, गिरजाघर बचाया। सबमें ब्रह्म ही स्थित माना गया । मूर्तिपूजा और बहुदेव ब्राह्मस्फुटसिद्धान्त अरब मुसलमान ज्योतिष विद्या के पूजा का निषेध हुआ । परन्तु सर्वव्यापक ब्रह्म को सबमें लिए बहुलांश में भारत के ऋणी है । ७७१ ई० में भारत का स्थित जानकर अन्य सभी मतों को सहन किया गया । एक दूतमण्डल खलीफा के आदेश से बगदाद पहुँचाया गया।
अपने मन्तव्यों में इस समाज ने वर्णाश्रम व्यवस्था, उसके एक विद्वान् सदस्य ने अरबों को 'ब्राह्मस्फुटसिद्धान्त' छत-छात, जात-पात, चौका आदि कुछ न रखा। जप, उनकी भाषा में सिखाया। यह ग्रन्थ संस्कृत में सन् ६१८ तप, होम, व्रत, उपवास आदि के नियम नहीं माने । ई० में महान् गणितज्योतिर्विद् ब्रह्मगुप्त द्वारा रचा गया श्राद्ध, प्रेतकर्म का झगड़ा ही नहीं रखा । उपनिषदों को था। इसे अरब लोग 'अलसिन्दहिन्द' कहते थे। इसी भी आधारग्रन्थ की तरह माना गया; प्रमाण की तरह के आधार पर इब्राहीम इब्न हबीब अल दुजारी ने 'जिज' नहीं। साथ ही संसार की जो सब बातें बुद्धिग्राह्य समझी (ज्योतिष सारणी) के सिद्धान्त निकाले । समकालीन याकूब गयीं, उनको लेने में ब्राह्मसमाज को कोई आपत्ति न इब्न तारिक ने भी इसी 'ब्राह्मस्फुटसिद्धान्त' के आधार थी । ब्राह्मसमाज कुरान, इजील, वेदादि सभी धर्मग्रन्थों पर 'तरकीब अल अफलाक' की रचना की। को समान सम्मान देता है और संसार के सभी अच्छे ब्राह्मीप्रतिपब्लाभवत-चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को इस व्रत का धर्मशिक्षकों का समान समादर करता है। इस प्रकार आरम्भ होता है । इसमें उपवास का विधान है। इस दिन ब्राह्मसमाज ने हिन्दू संस्कृति की सीमाबद्ध मर्यादा को रंगीन चूर्ण से अष्टदल कमल बनाकर उस पर ब्रह्मा की
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