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भक्ति मार्ग-भक्तिरत्नावली
महाराष्ट्र में कुछ-कुछ (पोषण) हुआ । गुजरात में बृद्धा हो (७.५.२३-२४) में नवधा भक्ति का वर्णन है । उपर्युक्त गयी । वहाँ घोर कलिपुग (म्लेच्छ-आक्रमण) के सम्पर्क से छः में तीन-श्रवण, दास्य और सख्य और जोड़ दिये गये पाखण्डों द्वारा खण्डित अङ्गवाली में दुर्बल होकर बहुत है। पाश्चरात्र संहिताओं के अनुसार सम्पूर्ण भागवतधर्म चार दिनों तक पुत्रों (ज्ञान-वैराग्य) के साथ मन्दता को प्राप्त हो खण्डों में विभक्त है : (१) ज्ञानपाद ( दर्शन और धर्मगयी। फिर वृन्दावन (कृष्ण की लीलाभूमि) पहुँचकर विज्ञान ) (२) योगपाद (योगसिद्धान्त और अभ्यास) सम्प्रति नवीना, सुरूपिणी, युवती और सम्यक प्रकार से (३) क्रियापाद ( मन्दिर निर्माण और मूर्तिस्थापना) सुन्दर हो गयी हूँ। ] इसमें सन्देह नहीं कि मध्ययुगीन (४) चर्यापाद ( धार्मिक क्रियाएँ )। रागात्मिका भक्ति का उदय तमिल प्रदेश में हुआ। परन्तु
भक्ति के ऊपर विशाल साहित्य का निर्माण हुआ है। उसके पूर्ण संस्कृत रूप का विकास भागवत धर्म के मूल
इस पर सबसे प्रसिद्ध ग्रन्थ है श्रीमद्भागवत पुराण । स्थल वृन्दावन में ही हुआ, जिसको दक्षिण के कई सन्त
इसके अतिरिक्त महाभारत का शान्तिपर्व, भगवद्गीता, आचार्यों ने अपनी उपासनाभूमि बनाया ।
पाञ्चरात्रसंहिता, सात्वतसंहिता, शाण्डिल्यसूत्र, नारदीय भागवत धर्म के मुख्य सिद्धान्त इस प्रकार हैं : सृष्टि के
भक्तिसूत्र, नारदपञ्चरात्र, हरिवंश, पद्मसंहिता, विष्णुतत्त्व
संहिता; रामानुजाचार्य, मध्वाचार्य, निम्बार्काचार्य, उत्पादक एक मात्र भगवान् हैं। इनके अनेक नाम हैं,
वल्लभाचार्य आदि के ग्रन्थ द्रष्टव्य हैं। जिनमें विष्णु, नारायण, वासुदेव, जनार्दन आदि मुख्य हैं। वे अपनी योगमाया प्रकृति से समस्त जगत की उत्पत्ति भक्तिमार्ग-सगुण-साकार रूप में भगवान् का भजन-पूजन करते हैं। उन्हीं से ब्रह्मा, शिव आदि अन्य देवता प्रादुर्भुत करना। मोक्ष के तीन साधन हैं; ज्ञानमार्ग, कर्ममार्ग होते हैं । जीवात्मा उन्हों का अंश है, जिसको भगवान् का और भक्तिमार्ग । इन मार्गों में भगवद्गीता भक्तिमार्ग को सायुज्य अथवा तादात्म्य होने पर पूर्णता प्राप्त होती है। सर्वोत्तम कहती है । इसका सरल अर्थ यह है कि सच्चे समय-समय पर जब संसार पर संकट आता है तब भग- हृदय से संपादित भगवान् की भक्ति पुनर्जन्म से उसी वान् अवतार धारण कर उसे दूर करते हैं। उनके दस प्रकार मोक्ष दिलाती है, जैसे दार्शनिक ज्ञान एवं निष्कामप्रमुख अवतार है जिनमें राम और कृष्ण प्रधान हैं । महा- योग दिलाते है। गीता ( १२.६-७ ) में श्रीकृष्ण का भारत में भगवान् के चतुर्व्यह की कल्पना का विकास कथन है : “मुझ पर आश्रित होकर जो लोग सम्पूर्ण कर्मों हुआ । वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न और अनिरुद्ध चार तत्त्व को मेरे अपर्ण करते हुए मुझ परमेश्वर को ही अनन्य भाव चतुव्यूह हैं, जिनकी उपासना भक्त क्रमशः करता है । वह
के साथ ध्यानयोग से निरन्तर चिन्तन करते हुए भजते हैं, अनिरुद्ध, प्रद्युम्न, संकर्षण और वासुदेव में क्रमशः उत्तरो- मुझमें चित्त लगाने वाले ऐसे भक्तों का मैं शीघ्र ही मत्य तर लीन होता है, परन्तु वासुदेव नहीं बनता; उन्हीं का रूप संसार-सागर से उद्धार कर देता हूँ।" अंश होने के नाते उनके सायुज्य में सुख मानता है । बहुत से अनन्य प्रेमी भक्तिमार्गी शुष्क मोक्ष चाहते ही निष्काम कर्म से चित्त की शुद्धि और उससे भाव की शुद्धि नहीं। वे भक्ति करते रहने को मोक्ष से बढ़कर मानते हैं। होती है । भक्ति ही एक मात्र मोक्ष का साधन है। भग- उनके अनुसार परम मोक्ष के समान परा भक्ति स्वयं फलवान् के सम्मुख पूर्ण प्रपत्ति ही मोक्ष है ।
रूपा है, वह किसी दूसरे फल का साधन नहीं करती है। भागवत उपासनापद्धति का प्रथम उल्लेख ब्रह्मसूत्र
भक्तिरत्नाकर-अठारहवीं शती के प्रारम्भ में नरहरि चक्र
वर्ती ने चैतन्य सम्प्रदाय का इतिहास लिखा था, जिसका के शाङ्कर भाष्य (२.४२) में पाया जाता है। इसके अनुसार अभिगमन, उपादान, इज्या, स्वाध्याय और योग से
नाम भक्तिरत्नाकर है। उपासना करते हुए भक्त भगवान को प्राप्त करता है। भक्तिरनामृतसिन्धु-चैतन्य सम्प्रदाय के विख्यात आचार्य 'ज्ञानामृतसार' में छः प्रकार की भक्ति बतलायी गयी है- रूप गोस्वामा ( १६वीं शता) द्वारा राचत इस ग्रन्थ में (१) स्मरण (२) कीर्तन (३) वन्दन (४) पादसेवन (५) संस्कृत भाषा में भगवान् की स्तुतियों का संग्रह है। अर्चन और (६) आत्मनिवेदन । भागवत पुराण भक्तिरत्नावली-यह माध्व संप्रदाय का ग्रन्थ है । रचना
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