________________
ब्रह्मरम्भा-ब्रह्मविद्याविजय
४५५
ब्रह्मरम्भा-दक्षिण भारत के 'श्रीशैल' नामक पवित्र पर्वत तीन दिनों तक तिलों के साथ पूजन करना चाहिए । साथ पर यह शाक्त तीर्थ है। स्थानीय लेखों (स्थलमाहात्म्य) ही अग्नि का पूजन कर प्रतिमा को तिल सहित किसी के आधार पर यह मल्लिकार्जुन का बनवाया हुआ बताया सपत्नीक गृहस्थ को दान कर देना चाहिए। इस व्रत के जाता है। चतुर्थ शताब्दी ई० पू० में चन्द्रगुप्त मौर्य की आचरण से व्रती ब्रह्मलोक को प्राप्त कर जीवनमुक्त हो पुत्री इसके देवता के प्रति अत्यन्त भक्ति रखती थी, वह जाता है। नित्य मन्दिर में मल्लिका (मल्लिकापुष्प) चढ़ाती थी।
(२) द्वितीया के दिन किसी वैदिक (ब्रह्मचारी) को एक लेख से यह भी ज्ञात होता है कि बौद्ध विद्वान् नागा
भोजनादि खिलाकर सम्मान किया जाना चाहिए। ब्रह्मा र्जन ने भिक्षुओं तथा संन्यासियों को यहाँ रहने के लिए
की प्रतिमा को कमलपत्र पर विराजमान करके गन्ध, अक्षत, आमंत्रित किया तथा सभी धार्मिक पुस्तकों का यहाँ संग्रह
पुष्पादि से उसका पूजन करना चाहिए। इसके बाद धी किया । बौद्धधर्म के अवसान पर यह आश्रम हिन्दू मन्दिर
तथा समिधाओं से हवन करने का विधान है। में परिवतित हुआ तथा यहाँ शिव तथा उनका शक्ति ब्रह्मलक्षणनिरूपण-स्वामी अनन्ताचार्य (सोलहवीं शताब्दी) माधवी या 'ब्रह्मरम्भा' की उपासना आरम्भ हुई । दक्षिण
द्वारा रचित एक ग्रन्थ । इसमें रामानुज सम्प्रदाय के मत भारत में यह एक मात्र मन्दिर है, जहाँ सभी जातियों
का प्रतिपादन हुआ है। अथवा वर्गों के पुरुष तथा स्त्रियाँ पूजा में भाग ले
ब्रह्मलोक-पुराणों में ब्रह्माण्ड को सात ऊपरी तथा सात सकते हैं।
निचले लोकों में बँटा हुआ बताया गया है। इस प्रकार ब्रह्मराक्षस-दे० 'ब्राह्म पुरुष ।'
कुल चौदह लोक हैं। सात ऊपरी लोकों में सत्यलोक ब्रह्मषिदेश-ब्रह्मर्षियों के निवास का देश । इसकी परि- अथवा ब्रह्मलोक सबसे ऊपर है। यहाँ के निवासियों की भाषा और महिमा मनुस्मृति (२.१९-२०) में इस प्रकार मृत्यु नहीं होती। यह अपने निचले तपोलोक से १२०० दी हुई है :
लाख योजन ऊँचा है। कुरुक्षेत्रञ्च मत्स्याश्च पञ्चालाः शूरसेनकाः । ब्रह्मविद्या-यह छान्दोग्य उपनिषद् (७.१,२,४;२,१७,१) एष ब्रह्मर्षिदेशो वै ब्रह्मावर्तादनन्तरः ।। तथा बृहदारण्यक उपनिषद् ( १.४,२० आदि ) में एक एतद्देशप्रसूतस्य
सकाशादग्रजन्मनः । प्रकार की विद्या बतायी गयी है जिसका अर्थ है 'ब्रह्म का स्वं स्वं चरित्रं शिक्षेरन् पृथिव्यां सर्वमानवाः ॥ ज्ञान' । प्रत्येक महान् धर्म के दो बड़े भाग देखे जाते हैं : [ कुरुक्षेत्र, मत्स्य, पञ्चाल, शूरसेन मिलकर ब्रह्मर्षिदेश
पहला आन्तरिक तथा दूसरा बाह्य । पहला आत्मा है तो
दूसरा शरीर । पहले भाग में चरम सत्ता (ब्रह्म) का ज्ञान है, जो ब्रह्मावर्त के निकट है। इस देश में उत्पन्न ब्राह्मण के पास से पृथ्वी के सभी मानव अपना-अपना चरित्र
तथा दूसरे में धार्मिक नियमों का पालन, क्रियाएँ तथा
उत्सवादि क्रियाकलाप निहित होते हैं । धर्म के पहले भाग सीखते रहें। ]
को हिन्दूधर्म में 'ब्रह्मविद्या' कहते हैं तथा इसके जानने यहाँ के आचार-विचार आदर्श माने जाते थे।
वालों को 'ब्रह्मवादी' कहते हैं । ब्रह्मवादी-प्राचीन काल में इसका अर्थ 'वेद की व्याख्या ब्रह्मविद्या उपनिषद-योग विद्या सम्बन्धी एक उपनिषद् । करने वाला' था । ब्राह्मण ग्रन्थों में 'ब्रह्मविद्' ब्रह्म (परम यह छन्दोबद्ध है। स्पष्टतः यह परवर्ती उपनिषद है। तत्त्व) को जानने वाले को कहा गया है। आगे चलकर ब्रह्मविद्याभरण-१५वीं शताब्दी के एक वेदान्ताचार्य अद्वैताइसका अर्थ 'ब्रह्म ही एक मात्र सत्ता है ऐसा कहने वाला'
नन्द ने शाङ्करभाष्य के आधार पर ब्रह्मविद्याभरण नामक हो गया ।
वेदान्तवृत्ति लिखी है। इसमें ब्रह्मसूत्र के चार अध्यायों ब्रह्मवत-(१) किसी भी पवित्र तथा उल्लेखनीय दिन में की व्याख्या है । साथ ही इसमें पाशुपत धर्म के आवश्यक इस व्रत का अनुष्ठान हो सकता है । यह प्रकीर्णक व्रत है। नियमों का भी वर्णन हुआ है। इसमें ब्रह्माण्ड (गोल) की सुवर्ण प्रतिमा का लगातार ब्रह्मविद्याविजय-वेदान्तशास्त्री दोहयाचार्य द्वारा रचित एक
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org