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ब्रह्मचर्य-ब्रह्मदत्त वेदान्ताचार्य
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रचना विशेष क्रम से की और ज्योतिष और गणित के कभी-कभी प्रौढ और वृद्ध लोग भी छात्रजीवन का विषयों को अलग-अलग अध्यायों में बाँटा।
निवहि समय-समय पर करते थे, जैसा कि आरुणि (बृ० ब्रह्मचर्य-मूल अर्थ है 'ब्रह्म (वेद अथवा ज्ञान) को प्राप्ति का उ० ६.१.६) की कथा से ज्ञात होता है।
आचरण ।' इसका रूढ प्रयोग विद्यार्थीजीवन के अर्थ में ब्रह्मचर्य का सामान्य अर्थ स्त्रीचिन्तन, दर्शन, स्पर्श होता है । आर्य जीवन के चार आश्रमों में प्रथम ब्रह्मचर्य । आदि का सर्वथा त्याग है । इस प्रकार से ही पठन, भजन, है जो विद्यार्थी जीवन की अवस्था का द्योतक है । ऋग्वेद ध्यान की ओर मनोनिवेश सफल होता है ।। के अन्तिम मण्डल में इसके अर्थों पर विवेचन हुआ है। ब्रह्मचारी-आर्यों द्वारा पालित चार आश्रमों में से निःसन्देह विद्यार्थीजीवन का अभ्यास क्रमशः विकसित प्रथम आश्रमी, जो ब्रह्मचर्य के नियमों के साथ विद्याहोता गया एवं समय के साथ-साथ इसके आचार कड़े ध्ययन में निरत रहता था। विशेष विवरण के लिए दे० होते गये, किन्तु इसका विशद विवरण परवर्ती वैदिक 'ब्रह्मचर्य'। साहित्य में ही उपलब्ध होता है। ब्रह्मचारी की प्रशंसा में
ब्रह्मज्ञानी--ब्रह्म को जानने वाला । आत्मा अथवा ब्रह्म का कथित अथर्ववेद (११.५) के एक सूक्त में इसके सभी
पूर्ण ज्ञान जिसने प्राप्त कर लिया है वही ब्रह्मज्ञानी है । गुणों पर प्रकाश डाला गया है । आचार्य द्वारा कराये गये
वह सभी बन्धनों से मुक्त, मोक्ष का अधिकारी होता है । उपनयन संस्कार द्वारा बटुक का नये जीवन में प्रवेश, ब्रह्मण्यतीर्थ-मध्व मतावलम्बी आचार्य व्यासराज स्वामी मृगचर्म धारण करना, केशों को बढ़ाना, समिधा संग्रह के गुरु । इनका काल सोलहवीं शताब्दी है। करना, भिक्षावृत्ति, अध्ययन एवं तपस्या आदि उसकी ब्रह्मतत्त्वप्रकाशिका-सदाशिवेन्द्र सरस्वती के ग्रन्थों में साधारण चर्या वणित है । ये सभी विषय परवर्ती साहित्य
'ब्रह्मसूत्रवृत्ति' बहुत प्रसिद्ध है । यह ब्रह्मसूत्रों की शाङ्करमें भी दृष्टिगत होते हैं।
भाष्यानुसारिणी वृत्ति है। इसका अध्ययन कर लेने पर विद्यार्थी आचार्य के घर में रहता है (आचार्यकुल
शाङ्कर भाष्य समझना सरल हो जाता है । इस वृत्ति का वासिनः, ऐ० ब्रा० १.२३,२; अन्तेवासिनः, वही ३.११,५);
नाम 'ब्रह्मतत्त्वप्रकाशिका' है। भिक्षा मांगता है, यज्ञाग्नि की देखरेख करता है (छा० ब्रह्मतत्त्वसमीक्षा-'भामती' व्याख्याकार आचार्य वाचउ० ४.१०.२) तथा घर की रक्षा करता है (शत० ब्रा०
स्पति मिश्र (९वीं शताब्दी) द्वारा रचित ब्रह्मतत्त्वसमीक्षा ३.६२.१५)। उसका छात्रजीवनकाल बढ़ाया जा सकता
सुरेश्वराचार्य कृत ब्रह्मसिद्धि की टीका है। था । साधारणतः यह काल बारह वर्षों का होता था जो
ब्रह्मतर्कस्तव-अप्पय दीक्षित का शैवमत प्रतिपादक ग्रन्थ कभी-कभी बत्तीस वर्ष तक हो सकता था। छात्रजीवना
'ब्रह्मतर्कस्तव' वसन्ततिलका वृत्तों में रचा गया है। इसमें रम्भ के काल निश्चय में भी भिन्नता है। श्वेतकेतु १२
भगवान् शिव की महत्ता बतलायी गयी है । वर्ष की अवस्था में इसे आरम्भ कर १२ वर्ष तक अध्य- ब्रह्मदत्त चेकितानेय-चेकितान के वंशज, ब्रह्मदत्त चैकितायन करता रहा (छा० उ० ५.१.२) । गृह्यसूत्रों में कहा नेय को वृहदारण्यकोपनिषद् (१.३,२६) में आचार्य कहा गया है कि प्रथम तीनों वर्गों को ब्रह्मचर्य आश्रम में रहना गया है । जैमिनीयोपनिषद् (१.३८,१) में उनका उल्लेख चाहिए। किन्तु इसका पालन ब्राह्मणों के द्वारा विशेष कर, अभिप्रतारी नामक कुरु राजा द्वारा संरक्षित आचार्य के क्षत्रियों द्वारा उससे कम तथा वैश्यों द्वारा सबसे कम रूप में हुआ है। होता था। दूसरे और तीसरे वर्ण के लोग ब्रह्मचर्य ब्रह्मवत्त वेदान्ताचार्य-शङ्कराचार्य के पूर्व ब्रह्मदत्त नामक (विद्यार्थीजीवन) के एक अंश का ही पालन करते थे एक अतिप्रसिद्ध वेदान्ती हो गये हैं। सम्भव है वे भी
और सभी विद्याओं का अध्ययन न कर केवल अपने वर्ण वेदान्तसूत्र के भाष्यकार रहे हों। ब्रह्मदत्त के विचार से के योग्य विद्याभ्यास करने के बाद ही गृहस्थाश्रम में प्रवेश 'जीव अनित्य है, एकमात्र ब्रह्म ही नित्य पदार्थ है।' इस कर जाते थे । क्षत्रियकुमार विशेष कर युद्ध विद्या का ही मत को वेदान्तदेशिकाचार्य ने अपने 'तत्त्वमुक्ताकलाप' अध्ययन करते थे । राजकुमार युद्धविद्या, राजनीति, धर्म की टोका सर्वार्थसिद्धि (२.१६) में उद्धृत किया है। तथा अन्यान्य विद्याओं में भी पाण्डित्य प्राप्त करते थे। ब्रह्मदत्त कहते हैं-"जीव तथा जगत् दोनों ही ब्रह्म से
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