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ब्रह्मविद्यासमाज-ब्रह्मसर
ग्रन्थ । दोहयाचार्य रामानुज स्वामी के अनुयायी तथा
अप्पय दीक्षित के समकालीन थे। ब्रह्मविद्यासमाज-ब्रह्मविद्यासमाज या 'थियोसोफिकल
सोसाइटी' की स्थापक श्रीमती ब्लावात्स्की थीं। इसकी स्थापना 'आर्य समाज' के उदय के साथ ही १८८५ ई० के लगभग हुई । इसका मुख्य स्थान अद्यार (मद्रास) में रखा गया। ब्राह्मसमाज' की तरह इसमें एक मात्र ब्रह्म की उपासना आवश्यक न थी, और न जाति-पाति या मतिपूजा का खण्डन आवश्यक था। आर्य समाज की तरह इसने हिन्दु संस्कृति और वेदों को अपना आधार नहीं बनाया और न किसी मत का खण्डन किया । इसका एक मात्र उद्देश्य विश्वबन्धुत्व और साथ ही गुप्त आत्मशक्तियों का अनुसन्धान और सर्वधर्म समन्वय है। इसके उद्देश्यों में स्पष्ट कहा गया है कि धर्म, जाति, सम्प्रदाय, वर्ण, राष्ट्र, प्रजाति, वर्ग में किसी तरह का भेदभाव न रखकर विश्व में बन्धुत्व की स्थापना मुख्यतया अभीष्ट है। अतः इसमें सभी तरह के धर्म-मतों के स्त्री-पुरुष सम्मिलित हुए।
पुनर्जन्म, कर्मवाद, अवतारवाद जो हिन्दुत्व की विशेषताएँ थीं वे इसमें प्रारम्भ से ही सम्मिलित थीं। गुरु की उपासना तथा योगसाधना इसके रहस्यों में विशेष सन्निविष्ट हुई। तपस्या, जप, व्रत आदि का पालन भी इसमें आवश्यक माना गया। इस तरह इसकी आधारशिला हिन्दू संस्कृति पर प्रतिष्ठित थी । श्रीमती एनीवेसेण्ट आदि कई विदेशी सदस्य अपने को हिन्दू कहते थे, उनकी उत्तरक्रिया हिन्दुओं की तरह की जाती थी। इस सभा की शाखाएँ सारे विश्व में आज भी व्याप्त हैं। हिन्दू सदस्य इसमें सबसे अधिक हैं । पाश्चात्य शिक्षा के प्रभाव से जिनके मन में सन्देह उत्पन्न हो गया था, परन्तु जो पुनर्जन्म, वर्णाश्रम विभाग आदि को ठीक मानते थे, और न ब्राह्म- समाजी हो सकते थे न आर्यसमाजी, ऐसे हिन्दुओं की एक भारी संख्या ने थियोसोफिकल सोसाइटी को अपनाया और उसमें अपनी सत्ता बिना खोये सम्मिलित हो गये । भारत की अपेक्षा पाश्चात्य देशों में यह संस्था अधिक लोकप्रिय
और व्यापक है। ब्रह्मवेद अथर्ववेद का साक्षात्कार अथर्वा नामक ऋषि ने किया, इसलिए इसका नाम अथर्ववेद हो गया। यज्ञ के ऋत्विजों में से ब्रह्मा के लिए अथर्ववेद का उपयोग होता
था, अतः इसको 'ब्रह्मवेद' भी कहते हैं। ग्रिफिथ ने इसके अंग्रेजी अनुवाद की भूमिका में ब्रह्मवेद कहलाने के तीन कारण कहे हैं । पहले का उल्लेख पर हुआ है। दूसरा कारण यह है कि इस वेद में मन्त्र है, टोटके हैं, आशीर्वाद हैं और प्रार्थनाएँ हैं, जिनसे देवताओं को प्रसन्न किया जा सकता है। मनुष्य, भूत, प्रेत, पिशाच आदि आसुरी शत्रुओं को शाप दिया जा सकता और नष्ट किया जा सकता है । इन प्रार्थनात्मिका स्तुतियों को 'ब्रह्माणि' कहा जाता था। इन्हीं का ज्ञानसमुच्चय होने से इसका नाम ब्रह्म वेद पड़ा। ब्रह्मवेद कहलाने की तीसरी युक्ति यह है कि जहाँ तीनों वेद इस लोक और परलोक में सुखप्राप्ति के उपाय बतलाते हैं और धर्म पालन की शिक्षा देते हैं, वहाँ ब्रह्मवेद अपने दार्शनिक सुक्तों द्वारा ब्रह्मज्ञान सिखाता है और मोक्ष के उपाय बतलाता है। इसी लिए अथर्ववेद को अध्यात्मविद्याप्रद उपनिषदें बड़ी महत्त्वपूर्ण हैं। ब्रह्मवैवर्तपुराण-यह वैष्णव पुराण समझा जाता है। इसके आधे भाग में तीन खण्ड हैं, ब्रह्मखण्ड, प्रकृतिखण्ड और गणपतिखण्ड; और आधे से कुछ अधिक में कृष्णजन्मखण्ड का पूर्वार्ध और उत्तरार्ध है। इसकी श्लोकसंख्या १८ हजार है। स्कन्दपुराण के अनुसार यह पुराण सूर्य भगवान् की महिमा का प्रतिपादन करता है । मत्स्यपुराण इसमें ब्रह्मा की मुख्यता की ओर संकेत करता है। परन्तु स्वयं ब्रह्मवैवर्तपुराण में विष्णु की ही महत्ता प्रतिपादित मिलती है। निर्णयसिन्धु में एक 'लघु ब्रह्मवैवर्तपुराण' का वर्णन है, परन्तु वह सम्प्रति कहीं नहीं पाया जाता । दाक्षिणात्य और गौडीय दो पाठ इस पुराण के मिलते हैं । आजकल अनेक छोटे-छोटे ग्रन्थ ब्रह्मवैवर्तपुराण के अन्तर्गत प्रसिद्ध हैं, जैसे अलंकारदानविधि, एकादशीमाहात्म्य, कृष्णस्तोत्र, गंगास्तोत्र, गणेशकवच, गर्भस्तुति, परशुराम प्रति शङ्करोपदेश, बकुलारण्य तथा ब्रह्मारण्य-माहात्म्य, मुक्तिक्षेत्रमाहात्म्य, राधा-उद्धवसंवाद, श्रावणद्वादशीव्रत, श्रीगोष्ठीमाहात्म्य, स्वामिशैलमाहात्म्य, काशी-केदारमाहात्म्य आदि । ब्रह्मसर-( समन्तपंचक तीर्थ ) कुरुक्षेत्र का भारतप्रसिद्ध वैष्णव तीर्थ । ब्रह्मसर का विस्तृत सरोवर ( जो अब कूरुक्षेत्र सरोवर के नाम से साधारण जन में प्रसिद्ध है) १४४२ गज लंबा तथा ७०० गज चौड़ा है। इसके भीतर दो
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