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ब्रह्मद्वादशी-ब्रह्मयामल
उत्पन्न होकर ब्रह्म में ही लीन हो जाते हैं।" इनकी सामग्री पायी जाती है । इसमें २४५ अध्याय और १४००० दृष्टि से उपनिषदों का यथार्थ तात्पर्य 'तत्त्वमसि' इत्यादि श्लोक हैं। पुराण के पञ्चलक्षण-सर्ग, प्रतिसर्ग, वंश, महावाक्यों में नहीं है, किन्तु 'आत्मा वा अरे द्रष्टव्यः' मन्वन्तर तथा वंशानुचरित इसमें पाये जाते हैं। इसमें इत्यादि नियोगवाक्यों में है। इनके मत से साधक की प्रथम सष्टि का वर्णन, तदनन्तर सूर्य और चन्द्रवंश का किसी अवस्था में कर्मों का त्याग नहीं हो सकता। संक्षिप्त परिचय है। इसके पश्चात पार्वती का आख्यान और
शङ्कराचार्य ने बृहदारण्यक (१.४.७) के भाष्य में मार्कण्डेय की कथा के अनन्तर कृष्णकथा (अ० १८० ब्रह्मदत्त के मत का उल्लेख किया है। इस मत में अज्ञान -२१२) विस्तार से दी हुई है। मरणोत्तर अवस्था का की निवृत्ति भावनाजन्य ज्ञान से होती है । औपनिषद ज्ञान वर्णन अनेक अध्यायों में पाया जाता है। सूर्यपूजा और मुक्ति के लिए पर्याप्त नहीं है। ब्रह्मदत्त कहते हैं : 'यद्यपि सूर्यमहिमा का वर्णन भी हुआ है (अ० २८-३३)। दर्शन देह के अवस्थितिकाल में देवता का साक्षात्कार हो सकता शास्त्र का भी विवेचन है। सांख्यदर्शन की समीक्षा दस है तथापि उनके साथ मिलन तभी संभव है जब देह न अध्यायों (२३४-२४४) में पायी जाती है। किन्तु इस रहे । प्रारब्ध कर्म उपास्य के साथ उपासक के मिलने में
पुराण का सांख्य सेश्वर सांख्य है और ज्ञान के साथ भक्ति प्रतिबन्धक है।' ब्रह्मदत्त ध्यानयोगवादी थे, वे जीवन्मुक्ति
का विशेष महत्त्व स्वीकार किया गया है। इसके अन्त में नही मानते । शङ्कराचार्य के मत से मोक्ष दृष्टफल है। धर्म की महिमा निम्नांकित प्रकार से गायी गयी है : ब्रह्मदत्त के मत से यह अदृष्टफल है।
धमे मतिर्भवतु वः पुरुषोत्तमानां ब्रह्मद्वादशी-पौष शुक्ल द्वादशी को ज्येष्ठा नक्षा होने पर
स ह्येक एव परलोक गतस्य बन्धुः । इस व्रत का आरम्भ होता है। यह तिथिव्रत है, देवता
अर्थाः स्त्रियश्च निपुर्णरपि सेव्यमाना विष्णु हैं । एक वर्ष तक प्रति मास भगवान् विष्णु की
नैव प्रभावमुपयन्ति नच स्थिरत्वम् ।। पूजा तथा उस दिन उपवास रखना चाहिए । प्रति मास विभिन्न वस्तुओं, जैसे घी, चावल तथा जौ का होम होना
_ (ब्रह्मपुराण, २५५-३५) चाहिए।
ब्रह्मबन्धु-आचारहीन, निन्दनीय ब्राह्मण । इस शब्द का ब्रह्मनन्दी-प्राचीन काल के एक वेदान्ताचार्य । इनका मत
अयोग्य अथवा नाममात्र का पुरोहित अर्थ ऐतरेय ब्रा० मधसूदन सरस्वती ने 'संक्षेपशारीरक' की टीका (३.
(७.२७) तथा छान्दोग्य उ० (६.१.१) में किया गया है। २१७) में उद्धृत किया है । इससे अनुमान किया जाता
'राजन्यबन्धु' से इसका साम्य द्रष्टव्य है। स्मृतियों में भी है कि शायद ये भी अद्वैत वेदान्त के आचार्य रहे होंगे।
'ब्रह्मबन्धु' का प्रयोग हुआ है, जहाँ इसका अर्थ है 'वह प्राचीन वेदान्त साहित्य में ब्रह्मनन्दी 'छान्दोग्यवाक्यकार' ।
व्यक्ति जो नाम मात्र का ब्राह्मण है, जिसमें ब्राह्मण के अथवा केवल 'वाक्यकार' नाम से प्रसिद्ध थे।
गुण नहीं हैं और जो ब्राह्मण का केवल भाई-बन्धु है।' ब्रह्मपदशक्तिवाद-स्वामी अनन्ताचार्य कृत एक ग्रन्थ । इसमें ब्रह्मबिन्दु उपनिषद्-योग विद्या सम्बन्धी एक उपनिषद् ।
रामानुज सम्प्रदाय के सिद्धान्त का समर्थन किया गया है। इस वर्ग की सभी उपनिषदें छन्दोबद्ध हैं, जिनमें यह ब्रह्मपत्रस्नान-ब्रह्मपुत्र नदी में, जिसे ऊपर की ओर सबसे प्राचीन है तथा संन्यासवर्गीय मैत्रायणी की समकालौहित्य भी कहा जाता है, चैत्र शुक्ल अष्टमी को स्नान लीन है। करने से विशेष पुण्य होता है। इस स्नान से समस्त पापों ब्रह्ममीमांसा-उपनिषदों के ब्रह्म सम्बन्धी चिन्तन का विकास का नाश हो जाता है। जैसा कि विश्वास है, उस दिन
वेदान्त दर्शन में हुआ है, जिसे उत्तरमीमांसा, ब्रह्म सम्बन्धी
वेदान्त दर्शन में दशा है जिसे उनासीमा ना समस्त नदियों तथा समुद्र का भी जल ब्रह्मपुत्र में वर्तमान परवर्ती जिज्ञासा अथवा ब्रह्ममोमांसा भी कहते हैं। रहता है।
ब्रह्मयामल तन्त्र-यामल का अर्थ जोड़ा (युग्म) है। ऐसे ब्रह्मपुराण---इस पुराण का दूसरा नाम आदि ब्राह्म है। कुछ तन्त्रों में मूल देवता के साथ साथ उसकी शक्ति का यह वैष्णव पुराण है और इसमें विष्णु के अवतारों की भी निरूपण है। आठ यामल तन्त्र हैं, इनमें ब्रह्मयामल भी प्रधानता है। इसमें पुराण का मूल रूप और प्राचीनतम एक है।
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