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है । ब्रह्म का 'स्वरूप' लक्षण 'सच्चिदानन्द' है, जिसमें ब्रह्म का विचार उसके स्वरूप की दृष्टि से किया गया है। और भी कई दृष्टियों से ब्रह्म के ऊपर विचार हुआ है। तैत्तिरीय उपनिषद् (आनन्दवल्ली) में अन्न, प्राण, मन, विज्ञान और आनन्द को ब्रह्म के पाँच कोष बतलाया गया है । अन्नमय कोष ब्रह्म का सबसे स्थूल (भौतिक) आवरण है। प्राणमय इससे सूक्ष्म, मनोमय प्राणमय से भी सूक्ष्म, विज्ञानमय (बौद्धिक) मनोमय से तथा आनन्दमय कोष विज्ञानमय कोष से सूक्ष्म है । परवर्ती पूर्ववर्ती से सूक्ष्म और उसका आधार है। ब्रह्म आनन्दमय से भी सूक्ष्म और सबका आधार है। कुछ विद्वान् ब्रह्म को आनन्दमय मानते है, परन्तु वह वास्तव में केवल आनन्दमय न होकर 'आनन्दघन' है । ब्रह्म की दो अवस्थाएँ हैं(१) पर ब्रह्म और (२) अपर ब्रह्म । अपने शुद्ध रूप में ब्रह्म निर्गुण और निविशेष है । उसका निर्वचन नहीं हो सकता । इस रूप में वह पर ब्रह्म है। परन्तु जब ब्रह्म माया में प्रतिबिम्बित होता है तब वह सगुण हो जाता है। इसमें गुण आरोपित होते हैं। यह रूप अपर ब्रह्म का है। इसी को सगुण ब्रह्म, ईश्वर, भगवान् आदि कहते हैं। शाङ्कर वेदान्त में ब्रह्म को अद्वैत ही कहा गया है। इसका अर्थ यह है कि ब्रह्म को न एक कह सकते हैं और न अनेक । वह दोनों निर्वचनों से परे अर्थात् अद्वैत है। ब्रह्म का वास्तविक निरूपण निषेधात्मक है। इसीलिए उसको 'नेति-नेति' (ऐसा नहीं, ऐसा नहीं) कहते हैं।
ब्रह्मसूत्र और उसके विभिन्न भाष्यों में औपनिषदिक वचनों को ही लेकर ब्रह्म की व्याख्या की गयी है। बादरायण ने उपनिषद् के 'तज्जलान्' को लेकर ब्रह्म का लक्षण 'जन्माद्यस्य यतः' कहा है (ब्रह्मसूत्र, १.१.२)। यह ब्रह्म का तटस्थ लक्षण है। इसका अर्थ है "जिससे जन्म आदि सृष्टि की प्रक्रियाएँ होती है वह ब्रह्म है। इसके अनुसार ब्रह्म से ही सृष्टि का प्रादुर्भाव होता है, इसलिए वह विश्व का मूल कारण है । ब्रह्म सृष्टि में अन्तयाप्त है, इसलिए वह अन्तर्यामी है तथा सम्पूर्ण सृष्टि का नियमन करता है । अन्त में सृष्टि का विलय ब्रह्म में ही होता है, अतः वह समस्त विश्व का साध्य भी है । वही सब कुछ है, उसके अतिरिक्त कुछ नहीं है। उपनिषदों में इसलिए कहा गया है : 'सर्वं खल्विदं ब्रह्म नेह नानास्ति किञ्चन ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या जीवो ब्रह्मैव नापर:' आदि।
इसमें सन्देह नहीं कि जगत् का प्रादुर्भाव ब्रह्म से हुआ है । परन्तु ब्रह्म और जगत् में क्या सम्बन्ध है इसको लेकर भाष्यकार आचार्यों में मतभेद है। सांख्यदर्शन प्रकृतिवादी होने से प्रकृति को सृष्टि का उपादान कारण मानता है । न्याय-वैशेषिक ईश्वरवादी हैं अतः वे प्रकृति को सृष्टि का उपादान और ईश्वर को उसका निमित्त कारण मानते हैं । किन्तु वेदान्त के अनुसार ब्रह्म ही एक मात्र सत्ता है । अतः सृष्टि का उपादान और निमित्त कारण दोनों वही है। इस मत को 'अभिन्न निमित्तोपादान कारणवाद' कहते हैं।
ब्रह्म ही एक मात्र सत्ता है, इस पर वेदान्त के सभी सम्प्रदायों का प्रायः ऐकमत्य है। परन्तु ब्रह्म, जीव और जगत का जो आपाततः भेद दिखाई पड़ता है उसका क्या स्वरूप है, इस सम्बन्ध में आचार्यों में मतभेद है। भेद तीन प्रकार के होते हैं-(१) स्वगत (२) सजातीय और (३) विजातीय । यदि ब्रह्म के अतिरिक्त और कोई भिन्न सत्ता स्वीकार की जाय तो जगत् से ब्रह्म का विजातीय भेद हो जायेगा । यदि स्वयं ब्रह्म ही एक से अधिक हो तो ब्रह्म का जगत् से सजातीय भेद होगा। यदि ब्रह्म विराट् पुरुष है और सम्पूर्ण विविध विश्व उसमें समाविष्ट है तो ब्रह्म का जगत् के साथ स्वगत भेद है। सभी वेदान्ती सम्प्रदाय ब्रह्म में विजातीय और सजातीय भेद का प्रत्याख्यान करते हैं। किन्तु विशिष्टाद्वैत आदि कुछ सम्प्रदाय स्वगत-भेद मानते हैं । ब्रह्म को पुरुषोत्तम मानने वाले प्रायः सभी भक्तिसम्प्रदाय स्वगत-भेद स्वीकार करते हैं। किन्तु अद्वैतवादी शाङ्कर स्वगत-भेद भी स्वीकार नहीं करते । ब्रह्म में किसी प्रकार का भेद, गुण, विकार आदि मानने को वे तैयार नहीं। इसलिए उनका ब्रह्म केवल ध्यान और अनुभव का पात्र है। धर्म या उपासना को दृष्टि से स्वगत भेदयुक्त सगुण ब्रह्म का स्वरूप ही उपयोगी है । वही ईश्वर है और भक्तों का आराध्य है । वह सर्वगुणसन्दोह और भक्तों का प्रेमपात्र है। वही संसार में अवतरित और लोक के मङ्गल में प्रवृत्त होता है। अद्वैतवादियों के लिए माया (दृश्य प्रपञ्च) मिथ्या है, परन्तु भक्तों के लिए वह वास्तविक और भगवान् की शक्ति (योगमाया) है।
आचार्यों ने तर्क के आधार पर भी ब्रह्मवाद का समर्थन करने का प्रयास किया है । शङ्कराचार्य ने ब्रहा के
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