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दिवाकर-दीक्षा
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अन्तर 'उदन्वती' (जलसम्पन्न), 'पीलमती' (कणसम्पन्न) फील्ड तथा ह्विटने ने अमान्य ठहराया है । पञ्चविंश ब्राह्मण एवं प्रद्यौ विशेषणों से प्रकट होता है । आकाश को व्योम में भी एक ऐसी हो परीक्षा का वर्णन है। दहकती हुई तथा रोचन भी कहते हैं।
कुल्हाणी वाली एक प्रकार की परीक्षा का भी उल्लेख दिवाकर-(१) सूर्य का पर्याय । इसका अर्थ है 'दिन उत्पन्न छान्दोग्य उ० में है । लुडविग एवं ग्रिफिथ ऋग्वेद के एक करने वाला।
अन्य परिच्छेद में दीर्घतमा की अग्नि एवं जल परीक्षा के (२) दिवाकर नामक एक सूर्योपासक से सुब्रह्मण्य
प्रसंग का उल्लेख करते हैं। वेबर के कथनानुसार तुलानामक ग्राम में स्वामी शङ्कराचार्य के मिलन की बात परीक्षा का शतपथ ब्राह्मण में उल्लेख है (११.२,७,३३)। 'शङ्करदिग्विजय' में कही गयी है।
परवर्ती धर्मशास्त्र के व्यवहार काण्डों में जहाँ विधिषुपति-धर्मसूत्रों में यह शब्द उन लोगों की तालिका वादों (अभियोगों) के निर्णय के सम्बन्ध में प्रमाणों पर में उद्दिष्ट है जो अनियमित विवाह किये हुए हों। पर- विचार किया गया है, वहाँ 'दिव्य' के विविध प्रकारों का म्परागत इसका अर्थ द्वितीय बार विवाहित स्त्री का पति वर्णन पाया जाता है। है । मनु के अनुसार यह शब्द देवर के लिए व्यवहृत है दिव्य श्वान-दो दैवी श्वान मैत्रायणी सं० (१.६,९) तथा जो अपनी भाभी से भाई की मृत्यु के बाद सन्तानप्राप्ति तैत्तिरीय ब्राह्मण (१.१,२.४-६) में उल्लिखित सूर्य तथा चन्द्र के लिए वैवाहिक सम्बन्ध करता है। दिधिषु से विधवा है । अथर्व में भी 'दिव्य श्वान' से सूर्य का बोध होता है। का भी बोध होता है जो अन्य पति के चुनाव की इच्छा दिव्याचार भाव-यह शाक्त साधना की मानसिक स्थिति है। करती हो । दूसरी परम्परा में दिधिषु से उस बड़ी बहिन
रा म दिाधषु से उस बड़ी बाहन शक्ति की साधना करने वाले तीन भावों का आश्रय लेते का बोध होता है जिसकी छोटी बहिन उसके पहले ब्याही है. उनमें दिव्य भाव से देवता का साक्षात्कार होता है। गयी हो। इसकी पुष्टि 'अग्रेदिधिषुपति' शब्द अर्थात्
वीर भाव से क्रियासिद्धि होती है, साधक साक्षात् रुद्र हो अपने से पहले ब्याही छोटी बहिन का पति से होती है।
जाता है । पशु भाव से ज्ञानसिद्धि होती है। इन्हें क्रम से विष्णु के अनुसार दिधिषु ऐसी बड़ी बहिन के लिए प्रयुक्त है
दिव्याचार, वीराचार और पश्वाचार भी कहते हैं। पशु जिसके विवाह की व्यवस्था उसके पिता-माता न कर सकें
भाव से ज्ञान प्राप्त करके साधक वीराचार द्वारा रुद्रत्व और जो अपना पति स्वयं चुने (कुर्यात् स्वयंवरम्) । प्राप्त करता है। तब दिव्याचार द्वारा देवता की तरह क्रियादिवाकरवत-हस्त नक्षत्र युक्त रविवार के दिन इस व्रत शील हो जाता है। इन भावों का मूल निस्सन्देह शक्ति है ।
का अनुष्ठान किया जाता है। यह सात रविवारों तक दिह, विहवार-ग्रामदेवता को 'दिह' या 'दिहवार' कहते किया जाना चाहिए। यह वारव्रत है। भूमि पर द्वादश हैं। इनकी स्थापना गांव के सीमान्तर्गत किसी वृक्ष (विशेष दल वाले कमल को रखकर, द्वादश आदित्यों में से प्रत्येक कर नीम वक्ष) के तले की जाती है । उत्तर प्रदेश में इनकी को एक-एक दल पर स्थापित करके सूर्य का पूजन करना पूजा होती है । ये ग्राम की रक्षा भूत-प्रेत एवं बीमारियों चाहिए । आदित्यों का क्रम यह होगा--सूर्य, दिवाकर, से करते हैं । कहीं-कहीं इसका उच्चारण 'डीह' भी पाया विवस्वान्, भग, वरुण, इन्द्र, आदित्य, सविता, अर्क, जाता है । मूलतः दिह यक्ष जान पड़ता है जो ग्राम और मार्तण्ड, रवि तथा भास्कर । वैदिक तथा अन्य मन्त्रों का खेतों के रक्षक के रूप में पूजा जाता है। कुछ वर्षों के पाठ करना चाहिए।
अन्तराल पर इसकी विस्तृत पूजा होती है जिसमें दिह दिव्य-अपराध परीक्षा की कुछ कठोर सांकेतिक (यक्ष) और यक्षिणी का विवाह एक मुख्य क्रिया है । इसमें विधियाँ, जो अग्नि, जल आदि की सहायता से की जाती नगाडे के वादन के साथ 'पचड़ा' गाया जाता है, जिसमें थीं। दिव्य विधि का प्रयोग परवर्ती साहित्य में अधिकांश 'दिह' का स्तुतिगान होता है। बहुत पीछे हुआ है, किन्तु वैदिक साहित्य में इस प्रकार दीक्षा-किसी सम्प्रदाय की सदस्यता प्राप्त करने के लिए की परीक्षा का प्रसंग अनेक स्थानों में आया है। अथर्ववेद (२.१२) में उद्धृत अग्निपरीक्षा जिसे वेबर, लुडविग, जाता है, वह दीक्षा कही जाती है। विभिन्न प्रकार की जिमर तथा दूसरों ने मान्यता दी है, उसे ग्रिल, ब्लूम- दीक्षाओं के लिए विविध प्रकार के मन्त्रों का विधान है।
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