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पञ्चीकरण-पणि
३८३ पञ्चीकरण-शङ्कराचार्य रचित मौलिक लघु रचनाओं में इन्होंने अलंकारादि के उदाहरण के लिए केवल स्वरचित एक 'पञ्चीकरण' भी है ।
कविताओं का ही प्रयोग किया है। काव्य क्षेत्र में इनकी पञ्चीकरणवार्तिक-शाङ्करमत के आचार्यों में सबसे अधिक रचनायें भामिनीविलास, करुणालहरी, गङ्गालहरी आदि प्रतिष्ठाप्राप्त सुरेश्वराचार्य (पूर्वाश्रम में मण्डनमिश्र) ने के रूप में अत्यन्त मधर है । शाहजहाँ के दिल्ली दरवार जिन अनेक ग्रन्थों की, रचना की उनमें से पञ्चीकरण- में ये राजपण्डित भी रहे थे। वार्तिक भी एक है।
पण्डितराज साहित्यशास्त्री के रूप में अधिक पक्षासाहब-सिक्ख तीर्थ पेशावर जाने वाले मार्ग पर तक्ष
प्रख्यात है। किन्तु हृदय से ये करुणरसपूर्ण भक्त और शिला से एक स्टेशन आगे तथा हसन अब्दाल से दो मील
धार्मिक प्रवृत्ति के थे । इनके ग्रन्थ भामिनीविलास, रसदक्षिण यह स्थान है। इस नाम की एक विचित्र कहानी है।
गङ्गाधर और पाँच लहरी रचनाएँ इस बात की पुष्टि एक समय बली कन्धारी नामक फकीर ने इस जगह के आस- करती है। पास के जल को अपनी शक्ति से खींचकर पहाड़ के ऊपर पण्डिताराध्य-वीरशैवों (लिङ्गायतों) की उत्पत्ति के बारे अपने कब्जे में कर लिया । यह कष्ट गुरु नानक से न में विभिन्न मत है । परम्परा यह है कि यह सम्प्रदाय सहा गया । अन्त में उन्होंने अपनी शक्ति से सम्पूर्ण जल पांच संन्यासियों द्वारा स्थापित हआ, जो भिन्न-भिन्न युगों खींच लिया। जल को जाता देखकर वली कन्धारी पीर ने
में शिव के मस्तक से उत्पन्न हुए माने जाते हैं । इनके नाम एक विशाल पर्वतखण्ड ऊपर से गिरा दिया । पर्वत को है—एकोराम, पण्डिताराध्य, रेवण, मरुल एवं विश्वाराध्य। आता देख गुरु नानक ने अपने हाथ का पञ्जा लगाकर ये अति प्राचीन थे। महात्मा वसव को इनके द्वारा स्थापित उसे रोक दिया। आज भी वह हाथ के पजे का निशान मत का पुनरुद्धारक माना जाता है । कुछ प्रारम्भिक प्रन्थों इस तीर्थ में विद्यमान है। वैशाख की प्रतिपदा को यहाँ में यह भी कहा गया है कि ये पांचों वसव के समकालीन मेला होता है।
थे । उपर्युक्त नाम पाँच प्राचीन मठों के प्रथम महन्तों के पटलपाठ-किसी पट्ट, पत्र अथवा तख्ती पर जो तान्त्रिक हैं। पण्डिताराध्य नन्घल के निकट श्रीशैल मठ के प्रथम मन्त्र लिखे जाते हैं उनको 'पटल' कहते हैं। उनके पारायण महन्त (मठाधीश) थे। को पटलपाठ कहा जाता है । पटल किसी योग्य व्यक्ति
पणि-ऋग्वेद में पणि नाम से ऐसे व्यक्ति अथवा समूह द्वारा ही अङ्कित होना चाहिए । अयोग्य पुरुष द्वारा तयार का बोध होता है जो धनी है किन्तु देवताओं का यज्ञ नहीं पटलादि का पढ़ना निषिद्ध है।
करता तथा पुरोहितों को दक्षिणा नहीं देता । अतएव यह पण्डित-यह एक विरुद है। 'पण्डित' का प्रयोग प्रथमतः ।
वेदमागियों की घृणा का पात्र है। देवों को पणियों के उपनिषदों में हुआ है (बृ० उ०३,४,१;६.४,१६,१७; छा०
ऊपर आक्रमण करने को कहा गया है। आगे यह उल्लेख उ०, ६.१४,२; मुण्डक०, १.२,८ आदि) । इसका मूल अर्थ
उनकी हार तथा वध के साथ हुआ है । कुछ परिच्छेदों में है 'जिसको पण्डा (सदसद्विवेकिनी बुद्धि) प्राप्त हो गयो पणि पौराणिक दैत्य हैं, जो स्वर्गीय गायों अथवा आकाहो' । यह विरुद ब्राह्मणों और अन्य वर्ण के विद्वानों के
शीय जल को रोकते हैं। उनके पास इन्द्र की दूती सरमा नाम के पूर्व लगाने की प्रथा है।
भेजी जाती है (ऋ० १०.१०८)। ऋग्वेद (८.६६,१०; पण्डितराज जगन्नाथ---पण्डितराज जगन्नाथ भट्रोजि
७.६,२) में दस्यु, मृधवाक् एवं ग्रथिन् के रूप में भी दीक्षित के गुरु शेषकृष्ण दीक्षित के पुत्र तथा वीरेश्वर
इनका वर्णन है। दीक्षित के शिष्य थे।
यह निश्चय करना कठिन है कि पणि कौन थे। राथ दर्शन, तर्क, व्याकरण आदि शास्त्रों के गम्भीर के मतानुसार यह शब्द 'पण = विनिमय' से बना है तथा विद्वान् होने के साथ ही ये साहित्यशास्त्र के प्रमुख लक्षण पणि वह व्यक्ति है जो बिना बदले के कुछ नहीं दे सकता। ग्रन्थकार और श्रेष्ठ काव्यरचयिता भी थे। संस्कृत इस मत का समर्थन जिमर तथा लडविग ने भी किया साहित्य के अपने प्रख्यात आलोचनाग्रन्थ रसगङ्गाधर में है। लडविग ने इस पार्थक्य के कारण पणिओं को यहाँ
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