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पाशुपतशास्त्र-पिता
तथा एक साँड़ का उत्सर्ग विहित है। यदि व्रती निर्धन वर्णित अश्वमेध के बलिपशुओं की तालिका में उल्लिहै तो एक ही मास इस व्रत का आचरण होना चाहिए। खित है। अनेक मन्त्र पढ़े जाते हैं जो "स मे पापं व्यपोहतु" से पिङ्गल-कात्यायन प्रणीत सर्वानुक्रमणिका के पश्चात् छन्द- . समाप्त होते हैं। ये मन्त्र शिवजी के नाना रूपों तथा शास्त्र के सबसे प्राचीन निर्माता महर्षि पिङ्गल हए हैं। स्कन्दादि अनेक देवताओं को सम्बोधित हैं । दे० हेमाद्रि, परम्परा के अनुसार इन्होंने १ करोड ६ लाख ७७ हजार २.१९७-२१२ (लिङ्गपुराण से)।
२ सौ १६ प्रकार के वर्णवृत्तों का प्रणयन किया । यह (२) चैत्र मास की पूर्णिमा को इस व्रत का अनुष्टान
अतिरञ्जना है। इसका तात्पर्य केवल यह है कि छन्दों की होना चाहिए । त्रयोदशी को ही एक सुयोग्य आचार्य को
संख्या अगणित हो सकती है। सम्मानित करते हुए जीवनपर्यन्त पाशुपत व्रत करने का ।
पिङ्गलातन्त्र-'आगमतत्वविलास' में जिन तन्त्रों का नामोसंकल्प किया जाता है, अथवा १२ वर्ष, ६ वर्ष, तीन वर्ष,
ल्लेख है, उनमें पिङ्गलातन्त्र भी है ।
पिण्ड--(१) पितरों को दिया जानेवाला आटे या भात एक वर्ष, एक मास अथवा केवल १२ दिन तक इस व्रत को करने का संकल्प लिया जाता है। घी तथा समिधाओं
का गोला, जो विशेष कर अमावस्या को दिया जाता है से हवन तथा चतुर्दशी को उपवास करने का विधान है।
और जिसका उल्लेख निरुक्त ( ३.४ ) तथा लाट्यायन पूर्णिमा को हवन, तदनन्तर निम्नलिखित मन्त्र बोलते
श्रौत्रसूत्र ( २.१०,४ ) में हुआ है। पिण्डदान श्राद्ध का हुए शरीर पर भस्म का लेप किया जाता है । मन्त्र है
विशेष अङ्ग है। 'अग्निरिति भस्म' इत्यादि ।
(२) जीवों के शरीर को भी पिण्ड कहते हैं। यह
विश्व का एक लघु रूप है, इसलिए कहा जाता है कि जो (३) कृष्ण पक्ष की द्वादशो से व्रती को एकभक्त
पिण्ड में है, वही ब्रह्माण्ड में भी। पद्धति से आहार करना चाहिए, त्रयोदशी को अयाचित
पिण्डपितृयज्ञ-पितरों के निमित्त दो यज्ञ किये जाते हैं; पद्धति से, चतुर्दशी को नक्क तथा अमावस्या को उपवास ।
प्रथम पिण्डपितृयज्ञ तथा दूसरा श्राद्ध । पहला यज्ञ अमावस अमावस्या के बाद वाली प्रतिपदा को सुवर्ण का साँड़
को किया जाता है तथा उसमें चावल ( भात ) का पिण्ड बनवाकर दान देना चाहिए। दे० हेमाद्रि, २.४५५
( गोलक ) पितरों को समर्पित किया जाता है। ४५७ (वह्निपुराण से) ।
पिण्डोपनिषद-यह परवर्ती उपनिषद् है । पाशुपत शास्त्र--पाशुपत शैवों का मुख्य धार्मिक ग्रन्थ
पितामह-वेदाङ्ग ज्योतिष पर तीन ग्रन्थ प्रसिद्ध है-प्रथम 'पाशुपतसुत्र' अथवा 'पाशुपतशास्त्र' है। इस ग्रन्थ की कोई प्रति उपलब्ध नहीं है।
ऋग्ज्योतिष, दूसरा यजुर्योतिष तथा तीसरा अथर्वज्योतिष ।
अन्तिम के लेखक पितामह हैं। वराहमिहिररचित पञ्चपाशुपत शेव-दे० 'पाशुपत' ।
सिद्धान्तिका में एक सिद्धान्त पैतामह नाम से भी दिया पाशुपतसिद्धान्त-पाशुपत एवं गैव सिद्धान्त दोनों समान ही
हुआ है। हैं । दे० 'पाशुपत' ।
महाभारत के प्रसिद्ध पात्र भीष्म को भी पितामह कहते पाषाणचतुर्दशी-शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी को, जब सूर्य है । क्योंकि वे कौरव-पाण्डवों के पिताओं के सम्मानित वृश्चिक राशि पर हो, आटे का पाषाण के समान ढेर पितातुल्य थे। बनाकर गौरी की आराधना करनी चाहिए। सन्ध्यो- पिता-ऋग्वेद तथा परवर्ती साहित्य में यह शब्द ( उत्पन्न परान्त भोजन का विधान है।
करने वाला ) की अपेक्षा शिशु के रक्षक के अर्थ में अधिक पाष्य-ऋग्वेद के एक सन्दर्भ ( १.५६,६) में वृत्र की व्यवहृत हुआ है । ऋग्वेद में यह दयालु एवं भले अर्थों में हार के वर्णन में यह शब्द उद्धृत है । दूसरे सन्दर्भ ( ९. प्रयुक्त हुआ है । अतएव अग्नि की तुलना पिता से ( ऋ० १०२,२ ) में सोमलता को पेरने वाले पत्थरों को पाष्य १०.७,३ ) की गयी है। पिता अपनी गोद में ले जाता है कहा गया है।
(१.३८,१ ) तथा अग्नि की गोद में रखता है ( ५.४. पिक-भारतीय पिक ( कोकिल ) यजुर्वेद संहिता में ३,७ ) । शिश पिता के वस्त्रों को खींचकर उसका ध्यान
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