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बकुलामावस्या-बदरीनाथ
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शङ्कर नामक प्राचीन मन्दिर है, बकसर की पञ्चक्रोशी भी ये अपने प्राचीन विश्वासों एवं रिवाजों पर चलते देखे । परिक्रमा में सभी तीर्थ आ जाते हैं।
जाते हैं जो द्रविडवर्ग से मिलते-जुलते हैं। (२) उन्नाव जिले में एक दूसरा बकसर शिवराजपुर से
बंजारों का धर्म जादूगरी है और ये गुरु को मानते हैं । तीन मील पूर्व पड़ता है। यहाँ वाणीश्वर महादेव का मन्दिर इनका पुरोहित भगत कहलाता है। सभी बीमारियों का है। कहा जाता है कि दुर्गासप्तशती में जिन राजा सुरथ कारण इनमें भूत-प्रेत की बाधा, जादू-टोना आदि माना तथा समाधि नामक वैश्य के तप का वर्णन है उनकी तपः
जाता है। इनके देवी-देवताओं की लम्बी तालिका में स्थली यहीं है। गङ्गादशहरा तथा कार्तिकी पूर्णिमा को प्रथम स्थान मरियाई या महाकाली का है (मातृदेवी का यहाँ पर मेला लगता है।
सबसे विकराल रूप) । यह देवी भगत के शरीर में उतरती बकुलामावस्या-एक पितृव्रत । पौष मास की अमावस्या
है और फिर वह चमत्कार दिखा सकता है । अन्य है गुरु को पितर लोगों को बकुलपुष्पों तथा शर्करायुक्त खीर से
नानक, बालाजी या कृष्ण का बालरूप, तुलजा देवी तृप्त करना चाहिए।
(दक्षिण भारत की प्रसिद्ध तुलजापुर की भवानी माता),
शिव भैया, सती, मिठ्ठ भूकिया आदि। बग्गासिंह-राधास्वामी मठ, तरनतारन (पंजाब) के महन्त ।
__ मध्य भारत के बंजारों में एक विचित्र वृषभपूजा का सन्तमत या राधास्वामी पन्थ के आदि प्रवर्तक हुजूर
प्रचार है। इस जन्तु को हतादिया (अवध्य ) तथा राधास्वामीदयालु उर्फ स्वामीजी के मरने पर ( संवत्
बालाजी का सेवक मानकर पूजते हैं, क्योंकि बैलों का १९३५ ) उनका स्थान हुजूर महाराज अर्थात् रायसाहब
कारवाँ ही इनके व्यवसाय का मुख्य सहारा होता है । सालिगराम माथुर ने ग्रहण किया, जो पहले इस प्रान्त
लाख-लाख बैलों की पीठ पर बोरियाँ लादकर चलने वाले के पोस्टमास्टर जनरल थे। उन्हीं के गुरुभाई, अर्थात्
'लक्खी बंजारे' कहलाते थे। छत्तीसगढ़ के बंजारे स्वामीजी के शिष्य बाबा जयमलसिंह ने ब्यास में, बाबा
'बंजारी' देवी की पूजा करते हैं, जो इस जाति की बग्गासिंह ने तरनतारन में तथा बाबा गरीबदास ने दिल्ली
मातृशक्ति की द्योतक है। सामान्यतया ये लोग हिन्दुओं में अलग-अलग गद्दियाँ चलायीं ।
के सभी देवताओं की आराधना करते हैं । बघौत-वनवासी जातियों-सन्थाल, गोंड आदि में यह बंजारी-दे० 'बंजारा'। विश्वास प्रचलित है कि बाघ से मारा गया मनुष्य भयानक बटेश्वर (विक्रमशिला)-विहार में भागलपुर से २४ मील भूत (प्रेतात्मा) बन जाता है । उसे शान्त रखने के लिए पूर्व गङ्गा के किनारे बटेश्वरनाथ का टीला और मन्दिर उसके मरने के स्थान पर एक मन्दिर का निर्माण होता है है। मध्यकाल में यहाँ विक्रमशिला नामक विश्वविद्यालय जिसे 'बघौत' कहते हैं । यहाँ उसके लिए नियमित भेट
था। उस समय यह पूर्वी भारत में उच्च शिक्षा की विख्यात पूजा की जाती है । इधर से गुजरता हुआ हर एक यात्री संस्था थी। यहाँ से दो मील दूर पर्वत की चोटी पर दुर्वासा एक पत्थर उसके सम्मान में इस स्थान पर रखता जाता ऋषि का आश्रम है । लगता है कि यहाँ का वट वृक्ष बोधिहै और यहाँ इस तरह पत्थरों का ढेर लग जाता है । हर वृक्ष का ही प्रतीक है और यह शैवतीर्थ बौद्धविहार का एक लकड़हारा यहाँ एक दीप जलाता है या आहुति देता अवशिष्ट स्मारक है। है ताकि क्रोधित भूत शान्त रहे ।
बदरीनाथ-उत्तर दिशा में हिमालय की अधित्यका पर मुख्य बंजारा-घुमक्कड़ कबायली जाति । संस्कृत रूप 'वाणिज्य- यात्राधाम । मन्दिर में नर-नारायण विग्रह की पूजा होती कार। ये व्यापारी घूम-घूमकर अन्न आदि विक्रय वस्तु देश है और अखण्ड दीप जलता है जो अचल ज्ञानज्योति का भर में पहुँचाते थे। इनकी संख्या १९०१ ई० की भारतीय प्रतीक है। यह भारत के चार धामों में प्रमुख तीर्थ है। जनगणना में ७,६५,८६१ थी। इनका व्यवसाय रेलवे प्रत्येक हिन्दू की यह कामना होती है कि वह बदरीनाथ का के चलने से कम हो गया है और अब ये मिश्रित जाति दर्शन अवश्य करे। यहाँ शीत के कारण अलकहो गये हैं। ये लोग अपना जन्मसम्बन्ध उत्तर भारत के नन्दा में स्नान करना अत्यन्त कठिन है। अलकनन्दा के ब्राह्मण अथवा क्षत्रिय वर्ण से जोड़ते हैं । दक्षिण में आज तो दर्शन ही किये जाते हैं । यात्री तप्तकुण्ड में स्नान करते
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