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भारद्वाज ने बुबु तक्षा तथा प्रस्तोक सारञ्जय से दान प्राप्त किया। प्रतीत होता है, यह कोई पणि था, यद्यपि ऋग्वेद में इसका वर्णन ऐसे रूप में हुआ है जिसने पणि के सभी गुणों को त्याग दिया हो । यदि ऐसा है तो पणि का आशय सद्भावपूर्ण व्यापारी तथा बृबु एक वणिक् राजकुमार हो सकता है। वेबर के अनुसार इस नाम का सम्बन्ध बेबीलॉन से है । हो सकता है, बुबु के वंशजों ने वहाँ जाकर अपना उपनिवेश बसाया हो । बृहज्जाबाल उपनिषद् – एक परवर्ती उपनिषद् |
बृहद्गौतमीयतन्त्र - 'आगमतत्त्वविलास' में उद्धृत तन्त्रों की तालिका में बृहत् गौतमीय तन्त्र भी उल्लिखित है । बृहती - प्रभाकर रचित कर्ममीमांसा विषयक एक ग्रन्थ, जो शबरस्वामी के भाष्य की व्याख्या है । विशेष विवरण के लिए दे० 'प्रभाकर' |
बृहत्तपोव्रत - मार्गशीर्ष मास की प्रतिपदा बृहत्तपा कहलाती है, उस दिन यह व्रत आरम्भ होता है । इसके शिव देवता हैं । यह एक वर्ष से सोलह वर्ष तक चलता है । इससे समस्त पाप ब्राह्मणहत्या का पाप भी दूर हो जाता है। बृहत्संहिता महान् ज्योतिचिद् वराहमिहिर - विरचित ज्योतिष विषय का अति प्रसिद्ध ग्रन्थ । त्रिस्कन्ध ज्योतिष
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संहिता अंश में विविध सांस्कृतिक वस्तुओं का वर्णन होता है । वह उसी प्रकार का एक आकरग्रन्थ है, जिससे भारतीय धर्मविज्ञान, मूर्तिशास्त्र तथा धार्मिक स्थापत्य पर काफी प्रकाश पड़ता है। वराहमिहिर का समय सन्दर्भउल्लेखों के अनुसार ४७५-५५० ई० है । बृहदारण्यक - शुक्ल यजुर्वेद का आरण्यक ग्रन्थ, जो शतपच ब्राह्मण ( १५.१-३ ) के समान है । दे० 'आरण्यक' | बृहदारण्यक वार्तिकसार-आचार्य शङ्कर रचित बृहदारण्यक उपनिषद् के भाष्य पर सुरेश्वराचार्य ने वातिक नामक व्याख्या लिखी है । प्रस्तुत ग्रन्थ में उसका श्लोकबद्ध संक्षिप्त सार है। इसके रचयिता माधवाचार्य अथवा विद्या रण्य स्वामी है। बृहदारण्यकोपनिषद् मुख्य उपनिषदों में दसवीं उपनिषद् बृहदारण्यक तथा छान्दोग्य प्राचीन उपनिषदों में सर्वाधिक महत्त्व की हैं, इन्हीं दोनों में मुख्य दार्शनिक विचार सर्वप्रथम स्पष्ट रूप से विकसित दृष्टिगोचर होते हैं। बृहदुक्थ - ऋग्वेद (५.१९.३) में अस्पष्ट रूप से कथिक एक
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बृहज्जाबाल उपनिषद्-बृह्मसंहिता पुरोहित का नाम पहु० के दो मन्त्रों ( १०.५४, ६, ५६, ७) में इन्हें ऋषि कहा गया है। ये ऐतरेय ब्रा० (८.२३) में दुर्मुख पाश्चाल के अभिषेककर्त्ता तथा शत० प्रा० (१३.२,२,१४) में वामदेव के पुत्र कहे गये हैं । पञ्चविंश ब्रा० (१४.९, ३७, ३८) में ये वामनेय (वामनी के वंशज ) के रूप में वर्णित है।
बृहद्गरि - पञ्चविंश ब्राह्मण (८.१, ४) में कथित बृहद्गिरि उन तीन यतियों में एक है जो इन्द्र द्वारा वध के बाद भी जीवित हो गये थे। उनका एक साममन्त्र भी उसी ब्राह्मण में उद्धृत है (१३.४.१५-१७) ।
बृहद्गौरीव्रत भाद्र कृष्ण तृतीया को चन्द्रोदय के समय यह व्रत किया जाता है और केवल महिलाओं के लिए है। दोरली नामक वृक्ष मूल समेत लाकर बालू की वेदी पर स्थापित करना चाहिए । चन्द्र उदित हुआ देखकर महिला व्रती स्नान करे । कलश में वरुण की पूजा कर भगवती गौरी की विभिन्न उपचारों से पूजा करे। गौरी के नाम से एक धागा गले में लपेट लेना चाहिए। पाँच वर्ष तक यह क्रम चलता है । काशी के आसपास यह व्रत 'कज्जली तृतीया' के नाम से मनाया जाता है ।
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बृहद्देवता — ऋग्वेद से संबन्धित एक ग्रन्थ, जिसमें वैदिक आख्यान एवं माहात्म्य विस्तार से लिखे गये है। यह शौनकरचित बताया जाता है जो श्लोकबद्ध है। इसकी प्राचीनता सर्वमान्य है । इसका उद्देश्य यह है कि प्रत्येक ऋचा के देवता का निर्देश किया जाय, किन्तु ग्रन्थकार ने इसे स्पष्ट करते हुए देवता सम्बन्धी एक विचित्र आख्यान भी दे दिया है। विश्वास किया जाता है कि यह ग्रन्थ निरुक्त के बाद बना है । कुछ लोग कहते हैं कि यह शौनक सम्प्रदाय के किसी अन्य व्यक्ति की रचना है। इसमें भागूरि, आश्व लायन, बलभी ब्राह्मण तथा निदानसूत्र का नाम भी मिलता है । बृहद्देवता ग्रन्थ शाकल शाखा के आधार पर नहीं बना है । इसमें शाकल शाखा का नाम कई बार आया है ।
बृहद्धर्म उपपुराणवह उन्तीस उपपुराणों में एक है। बृहद्ब्रह्मसंहिता एक वैष्णव आगम ग्रन्थ, जो तमिल देश में रचित माना जाता है । यह भी सम्भव है कि इसकी रचना उत्तर में हुई हो तथा इसमें दाक्षिणात्यों द्वारा प्रक्षेप हुआ हो। इसमें महात्मा शठकोप तथा रामानुज स्वामी
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