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बुद्धजन्ममहोत्सव-बुद्धावतार
ही सब दुःख उत्पन्न होते हैं। निरोध तीसरा सत्य है। समुदय अर्थात् दुःख के कारण तृष्णा का निरोध हो सकता है । जो स्थिति कारण से उत्पन्न होती है उसके कारण को हटाने से वह समाप्त हो जाती है । निरोध का ही नाम निर्वाण अर्थात् सम्पूर्ण वासना का क्षय है। निरोधगामिनी प्रतिपदा चौथा सत्य है। अर्थात् निरोध प्राप्त कराने वाला एक मार्ग है। वह है अष्टाङ्ग मार्ग अथवा मध्यमा प्रतिपदा ।" महात्मा बुद्ध प्रथम धर्मप्रवर्तक थे, जिन्होंने धर्म प्रचार के लिए संघ का संघटन किया। सारनाथ में प्रथम संघ बना । बुद्ध ने आदेश दिया, "भिक्षुओ ! बहुजनहिताय, बहुजनसुखाय, देव, मनुष्य और सभी प्राणियों के हित के लिए उस धर्म का प्रचार करो जो आदि मङ्गल है, मध्य मङ्गल है और अन्त मङ्गल है।" अस्सी वर्ष की अवस्था तक अपने धर्म का विभिन्न प्रदेशों में प्रचार करते हुए कुशीनगर में वे दो शालवृक्षों के बीच अपनी जीवनलीला समाप्त कर निर्वाण को प्राप्त हो गये। इस घटना को 'महापरिनिर्वाण' कहते हैं।
यद्यपि बुद्धदेव निरीश्वरवादी थे और वेदों के प्रामाण्य में विश्वास नहीं करते थे, पर उनके व्यक्तित्व का नैतिक प्रभाव भारतीय इतिहास पर दूरव्यापी पड़ा। जीवदया
और करुणा को वे सजीव मूर्ति थे । आस्तिक परम्परावादी हिन्दुओं ने उनको विष्णु का लोकसंग्रही अवतार माना और भगवान् के रूप में उनकी पूजा की। पुराणों में जो अवतारों की सूचियाँ हैं उनमें बुद्ध भगवान् की गणना है । वर्तमान हिन्दू धर्म बुद्ध के सिद्धान्तों से प्रभावित है।
हिन्दू पुराणों में बुद्ध भगवान् की कथा अन्य प्रकार से दी हुई है। दे० 'अवतार' तथा 'बुद्धावतार' । बुद्धजन्ममहोत्सव-वैशाख शुक्ल पक्ष में जब चन्द्र पुष्य नक्षत्र पर हो, उस समय बुद्ध की प्रतिमा शाक्य मुनि द्वारा कथित मन्त्रों का पाठ करते हुए स्थापित करनी चाहिए। लगातार तीन दिन उनकी पूजा करते हुए निर्धनों को नैवेद्यादि भेंट करना चाहिए । दे० नीलमत पुराण, पृ०६६-६७, श्लोक ८०९-८१६, जहाँ बुद्ध को विष्णु का अवतार बतलाया गया है। बुद्धद्वादशी-श्रावण शुक्ल द्वादशी को इस व्रत का अनुष्ठान होता है। इस तिथि को भगवान् बुद्ध की प्रतिमा का
गन्ध-अक्षतादि से पूजन करते हुए उनकी उपासना करनी चाहिए । महाराज शुद्धोदन ने इस व्रत को किया था, अतएव भगवान् विष्णु ने स्वयं उनके यहाँ जन्म लिया । दे० कृत्यकल्पतरु, ३३१-३३२; हेमाद्रि, १.१० ३७-१०३८; कृत्यरत्नाकर, २४७-२४८ । बुद्धावतार-विष्णु भगवान् का नवम अवतार । इस संबन्ध में भागवत, विष्णु आदि अनेक पुराणों में वर्णन आता है। विष्णु और अग्निपुराण के अनुसार देवताओं की रक्षा के लिए भगवान् माया-मोह स्वरूपी बुद्धावतार में शुद्धोदन राजा के पुत्र हुए। उन्होंने इस रूप में आकर देवताओं को पराजित करने वाले असुरों को माया से विमोहित कर वेदमार्ग से च्युत करने का उपदेश देना आरम्भ किया। माया-मोहावतारी भगवान् बुद्ध ने नर्मदा नदी के तट पर जाकर दिगम्बर, मुण्डित सिर आदि द्वारा विचित्र रूप वाले संन्यासी वेश में असुरों के समक्ष कहा : "आप लोग यह क्या कर रहे हैं ? इसके करने से क्या होगा ? यदि आपको मुक्ति (निर्वाण) की ही कामना है तो व्यर्थ में इतनी पशुहिंसा के यज्ञ-यागादि क्यों करते हैं ? निरर्थक कर्म करने से आप कुछ भी फल प्राप्त नहीं कर सकते । यह जगत् विज्ञानमय और निराधार है। इसके मूल में ईश्वरादि कुछ नहीं है । यह केवल भ्रम मात्र है, जिससे मोहित होकर जीव संसार में भ्रमित होता रहता है।" ऐसे मोहक चारु वचनों द्वारा बुद्ध ने समस्त असुरों को पथभ्रष्ट कर दिया। इस प्रकार बुद्धावतार के प्रसंग में विष्णुपुराण ने आधिदैविक कारण प्रस्तुत किया है।
इसी प्रकार कुछ आध्यात्मिक कारण भी बुद्धावतार से सम्बन्ध रखते हैं । बुद्ध के प्राकट्य के पूर्व देश भर में हिंसा का प्राबल्य था । वैदिक यज्ञ और ईश्वर के नाम के माध्यम से नर, पशु आदि विभिन्न जीवों की बलियाँ दी जाती थीं और लोग अन्धपरम्परया इस कार्य को ईश्वर की उपासना का रूप प्रदान करने लगे थे । इस प्रकार के भयंकर समय में बुद्ध को ईश्वर और यज्ञ के नाम पर किये जाने वाले जीवहत्या रूपी दुष्कर्म के अन्त के लिए ईश्वर और वेद का खण्डन करना पड़ा।
जिस प्रकार विष का उपचार विष द्वारा ही किया जाता है, उसी प्रकार महात्मा बुद्ध ने भी हिंसा-पापरूपी विष का शमन नास्तिकतारूपी विष से किया। इस प्रयोग
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