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बिल्वलक्षवत-बुधवत
संबन्ध स्थापित करती हैं । सम्भवतः इनका जीवनकाल वे जनता को जो उपदेश देते थे वे सादी लोकभाषा में पन्द्रहवीं शताब्दी का उत्तरार्ध है।
गेय पद या भजन के रूप में होते थे. ताल-स्वरों पर उनके बिल्वलक्ष व्रत-यह व्रत श्रावण, वैशाख, माघ अथवा विचार कविता के रूप में निकलते थे। उनमें ऊँचे कवित्व
कार्तिक में प्रारम्भ किया जाता है । प्रति दिन तीन सहस्र या साहित्यकला का अभाव है पर भाव गहरे और रहस्यबिल्व की पत्तियाँ एक लाख पूरी होने तक शिवजी पर पूर्ण हैं । उनके सारभूत दार्शनिक विचार ऐसे ही भजनों चढ़ायी जायँ । (स्त्री द्वारा स्वयं काती हुई बत्तियाँ जो घृत में प्रकट हुए हैं। कबीर पढ़े-लिखे नहीं थे, एतदर्थ इन या तिल के तेल में डुबायी गयी हों, किसी ताम्र पात्र में रचनाओं को उनके एक शिष्य ने १६२७ वि० में 'बीजक' रखकर शिवजी के मन्दिर में अथवा गङ्गातट पर अथवा नामक संग्रह के अन्तर्गत संकलित किया। यह उनकी गोशाला में प्रज्वलित की जानी चाहिए । एक लाख अथवा छोटी रचनाओं का उपदेशात्मक ग्रन्थ है। एक करोड़ बत्तियाँ बनायी जाय। ये समस्त बत्तियाँ यदि बीरनाथ-शिला या प्रस्तर देवताओं के प्रतीक हैं या उनकी सम्भव हो तो एक ही दिन में प्रज्वलित की जा सकती सूक्ष्म शक्ति से व्याप्त रहते हैं; इस विश्वास के कारण अनेक हैं। किसी पूर्णिमा को इसका उद्यापन करना चाहिए।) प्रकारों से पाषाणखण्डों की पूजा देश भर में प्रचलित रही दे० वर्षकृत्यदीपिका, ३९८-४०३ ।
है। कई स्थानों में ऐसे शिलास्तम्भ लकड़ी के खम्भों के बिल्वशाखापूजा-यह व्रत आश्विन शुक्ल सप्तमी को रूप में बदले दिखाई देते हैं, जो लगातार तेल व घृत के किया जाता है।
प्रदान से काले पड़ गये हैं। इन्हीं में एक पत्थर-देव बीरबिहारिणीदास-निम्बार्क सम्प्रदायान्तर्गत संगीताचार्य हरि- नाथ हैं, जिनकी पूजा कई प्रदेशों में आभीर वर्ग के लोग दास स्वामीजी के अनुगत एवं रसिकभक्त संत। ये पशुओं की रक्षा के लिए करते हैं। वास्तव में यह किसी वृन्दावन की लता-कुञ्जों में बाँकेविहारीजी की वजलीला यक्षपूजा अथवा वीरपूजा का विकसित रूप है।। का चिन्तन किया करते थे । संगीत की मधुर पदावलियों बीरभान-साध पन्थ के प्रवर्तक एक सन्त । इन्होंने सं० १७के साथ भगवान् की उपासना करना इनकी विशेषता थी। १५ वि० में यह पन्थ चलाया। दिल्ली से दक्षिण और इनकी रचनात्मक वाणी मुद्रित हो गयी है। सत्रहवीं पूर्व की ओर अन्तर्वेद में साध मत के लोग पाये जाते हैं। शताब्दी का उत्तरार्ध इनका स्थितिकाल है। संप्रति कबीर की तरह ये दोहरों और साखियों में उपदेश देते इनका उपासनास्थल यमुनाकूल की एकान्त शान्त निकुंजों थे। इनके बारह आदेश महत्त्व के हैं, जिनमें साधों का में 'टटियास्थान' कहलाता है।
सदाचार प्रतिपादित होता है । बिहारीलाल (चौबे)-व्रजभाषा के श्रेष्ठ कवि और उच्च बीरसिंह-सिक्ख खालसों के दो मुख्य विभाजन सहिजकोटि के काव्यकलाकार । इनका स्थितिकाल सत्रहवीं धारी तथा सिंह शाखाओं में हुए हैं। ये शाखाएँ पुनः शताब्दी का उत्तरार्ध है । ये कृष्ण के भक्त थे और इनकी क्रमशः छः तथा तीन उपशाखाओं में विभक्त हुई हैं । सिंह श्रृंगार रस की रचना 'बिहारी सतसई' हिन्दी साहित्य में शाखा की एक उपशाखा 'निर्मल' (संन्यासियों की शाखा) अपने अर्थगौरव के लिए अति प्रसिद्ध है । ‘सतसई' के कई के प्रवर्तक बीरसिंह थे, जिन्होंने इसकी स्थापना १७४७ भाष्यकारों ने सम्पूर्ण रचना का आध्यात्मिक अर्थ भी वि० में की थी। किया है।
बुध (सौमायन)-पञ्चविंश ब्राह्मण के एक सन्दर्भ में बीज-जगत् का कारण, सूक्ष्मतम मूल तत्त्व । नाद, बिन्दु उद्धृत आचार्य, जो सोम के वंशज थे । पौराणिक परम्परा तथा बीज सृष्टि के आदि कारण हैं । इन्हीं के द्वारा सारी के अनुसार बुध भी सोम (चन्द्र) के पुत्र थे। इनका विवाह अभिव्यक्तियाँ होती है। साधना के क्षेत्र में बीज, किसी मनु की पुत्री इला से हुआ। इन दोनों के पुत्र पुरूरवा देवता के मन्त्र के सारभूत केन्द्रीय अक्षर को कहते हैं। हए जिनसे ऐल (चन्द्र) वंश चला। प्रायः आगमप्रोक्त मन्त्रों का प्रथम अक्षर 'बीजाक्षर' बुधवत-जब बुध ग्रह विशाखा नक्षत्र पर आये, व्रती को कहलाता है।
एक सप्ताह तक 'एकभक्त' पद्धति से आहारादि करना बीजक-महात्मा कबीरदास सिद्ध कोटि के संत कवि थे। चाहिए । बुध की प्रतिमा काँसे के पात्र में स्थापित करक
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