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बाष्कल शाखा- बिल्वमङ्गल
संप्रति ऋग्वेद की उसी की स्मृति इस इसके उपाख्यान के मेष का रूप धरकर गये। मेधातिथि ने
बाष्कल शाखा का लोप हो गया है । बाष्कल उपनिषद् में बनी हुई है । सम्बन्ध में कहा जाता है कि इन्द्र कण्व के पुत्र मेधातिथि को स्वर्ग ले मेषरूपी इन्द्र से पूछा कि तुम कौन हो ? उन्होंने उत्तर दिया, 'विश्वेश्वर है तुमको सत्य के समुज्ज्वल मार्ग पर ले जाने के लिए मैंने यह काम किया है, तुम कोई आशंका मत करो।' यह सुनकर मेधातिथि निश्चिन्त हो गये विद्वानों का मत है कि बाष्कल उपनिषद् प्राचीन उपनिषदों में से है । बाष्कलशाखा - वर्तमान समय में ऋग्वेद की शाकल शाखा के अन्तर्गत शैशिरीय उपशाखा भी प्रचलित हैं । कुछ स्थानों पर बाल शाखा का भी उल्लेख मिलता है। अन्य शाखाओं से बाष्कल शाखा में इतना अन्तर और भी है कि इसके आठवें मण्डल में आठ मन्त्र अधिक हैं । अनेक लोग इन्हें 'वालखिल्य मन्त्र' कहते हैं। भागवत पुराण (१२.६.५९ ) के अनुसार बाष्कलि द्वारा वालखिल्य शाखा अन्य शाखाओं से संकलित की गयी थी। बाहुदन्तकजनीति विषयक एक प्राचीन ग्रन्थ, जो 'विशा लाक्ष (इन्द्र) नीतिशास्त्र' का संक्षिप्त रूप और पाँच हजार पद्यों का था। यह भीष्म पितामह के समय में 'बार्हस्पत्य शास्त्र' के नाम से प्रसिद्ध था । दे० 'बार्हस्पत्य' । बाह्रदन्तेय इन्द्र का एक पर्याय
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बिठूर - कानपुर के समीप प्राय: पन्द्रह मील उत्तर गंगातट पर अवस्थित एक तीर्थ, जिसका प्राचीन नाम ब्रह्मावर्त था । बिठूर में गङ्गाजी के कई घाट हैं जिनमें मुख्य ब्रह्माघाट है । यहाँ बहुत से मन्दिर हैं, जिनमें मुख्य मन्दिर वाल्मीकेश्वर महादेव का है। यहाँ प्रति वर्ष कार्तिक की पूर्णिमा को मेला होता है। कुछ लोगों का मत है कि स्वायम्भुव मनु की यही राजधानी थी और भुव का जन्म यहीं हुआ था। अंग्रेजों द्वारा निर्वासित पूना के नानाराव पेशवा यहीं तीर्थवास करते थे। बिन्दु - (१) आद्य सृष्टि में चित् शक्ति की एक अवस्था, प्रथम नाद से बिन्दु की उत्पत्ति होती है ।
(२) देहस्थित आज्ञाचक्र या भृकुटी का मध्यवर्ती कल्पित स्थान । अष्टांग योग के अन्तर्गत ध्यानप्रणाली में मनोवृत्ति को यहाँ केन्द्रित किया जाता है । इस स्थान से शक्ति का उद्गम होता है ।
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बिलाई माता -- एक ऐसी मातृदेवी की कल्पना, जो बिल्ली की तरह पहले सिकुड़ी रहकर पीछे बढ़ती जाती है । कुछ मूर्तियाँ ( और शिलाखण्ड भी ) आकार-प्रकार में बढ़ती रहती हैं, जैसे वह पत्थर जिसे 'बिलाई माता' कहते हैं । काशी में स्थित तिलभाण्डेश्वर ( तिलभाण्ड के स्वामी) शिवमूर्ति का दिन भर में तिल के दाने के बराबर बढ़ना माना जाता है ।
बिल्व-लक्ष्मी और शंकर का प्रिय एक पवित्र वृक्ष इसके नीचे पूजा-पाठ करना पुण्यदायक होता है । शिवजी की अर्चना में बिल्वपत्र ( बेलपत्र ) चढ़ाने का महत्त्वपूर्ण स्थान है उनको यह अति प्रिय है। पूजा के उपादानों में कम से कम विल्वपत्र तथा गङ्गाजल अवश्य होता है ।
बित्यत्रिरात्र व्रत इस व्रत में ज्येष्ठा नक्षत्र युक्त ज्येष्ठ की पूर्णिमा को सरसों मिले हुए जल से बिल्व वृक्ष को स्नान कराना चाहिए। तदनन्तर गन्ध, अक्षत, पुष्प आदि से उसकी पूजा करनी चाहिए। एक वर्ष तक व्रती को 'एकभक्त' पद्धति से आहारादि करना चाहिए। वर्ष के अन्त में बाँस की टोकरी में रेत या जौ, चावल, तिल इत्यादि भरकर उसके ऊपर भगवती उमा तथा शंकर की प्रतिमाओं की पुष्पादि से पूजा करनी चाहिए। विल्व वृक्ष को सम्बोधित करते हुए उन मन्त्रों का उच्चारण किया जाय जिनमें वैधव्य का अभाव, सम्पत्ति स्वास्थ्य तथा पुत्रादि की प्राप्ति का उल्लेख हो। एक सहस्र बिल्वपत्रों से होम करने का विधान है। चाँदी का बिल्ववृक्ष बनाकर उसमें सुवर्ण के फल लगाये जायें। उपवास रखते हुए त्रयोदशी से पूर्णिमा तक जागरण करने का विधान है। दूसरे दिन स्नान करके आचार्य का वस्त्राभूषणों से सम्मान किया जाय । १६, ८ या ४ सपत्नीक ब्राह्मणों को भोजन कराया जाय । इस व्रत के आचरण से उमा, लक्ष्मी, शची, सावित्री तथा सीता ने क्रमशः शिव, कृष्ण, इन्द्र, ब्रह्मा तथा राम को प्राप्त किया था ।
बिल्वमङ्गल -- विष्णुस्वामी सम्प्रदाय के एक अनन्य भक्त संत श्री कृष्ण एवं राधा के प्रार्थनापरक इनके संस्कृत कवितासंग्रह 'कृष्णकर्णामृत' नामक ग्रन्थ का भक्तसमाज में बड़ा सम्मान है। इन्हीं कविताओं के कारण बिल्वमङ्गल चिरस्मरणीय हो गये । कुछ जनश्रुतियाँ कालीकट तथा ट्रावनकोर के निकट स्थित पद्मनाभ मन्दिर से इनका
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