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बेलूर-बौद्धदर्शन
बेलूर-कर्नाटक प्रदेश का प्रसिद्ध तीर्थ । पुराने मैसूर राज्य में बेलूर का विशिष्ट स्थान है। चैन्नकेशव मन्दिर यहाँ का मुख्य यात्रास्थल है। राजा विष्णुवर्धन होयसल ने इसकी प्रतिष्ठा की थी। यहाँ बहन से प्राचीन मन्दिर हैं । इसका पुराना नाम वेलापुर है। बोधगया (बुद्धगया)-अन्तरराष्ट्रीय ख्याति का बौद्धती । पितृतीर्थ गया से यह सात मील दूर है । यहाँ बुद्ध भगवान् का विशाल कलापूर्ण मन्दिर है । पीछे पत्थर का चबूतरा है जिसे बौद्ध सिंहासन कहते हैं। इसी स्थान पर बैठकर गौतम बुद्ध ने तपस्या की थी। यहीं बोधिवृक्ष ( पीपल ) के नीचे उन्हें ज्ञान ( संबोधि ) प्राप्त हआ था इसलिए यह 'बोधगया' के नाम से प्रसिद्ध हुआ। यह बौद्धों के उन चार प्रसिद्ध और पवित्र तीर्थों में है जिनका सम्बन्ध भगवान् बुद्ध के जीवन से है। बहुसंख्यक बौद्ध यात्री यहाँ आते हैं। सनातनी हिन्दू यहाँ भी अपने पितरों को, विशेष कर भगवान बुद्ध को पिण्डदान
करते हैं। बोधायन-यजुर्वेद सम्बन्धी बौधायनश्रौतसूत्र के रचयिता सम्भवतः बोधायन थे। प्रसिद्ध वेदान्ताचार्य के रूप में भी इनकी ख्याति अधिक है। जनश्रुति है कि 'ब्रह्मसूत्र' पर बोधायन की रची एक वृत्ति थी जिसके वचनों का आचार्य रामानुज ने अपने भाष्य में उद्धरण दिया है। जर्मन पण्डित याकोबी का मत है कि बोधायन ने 'मीमांसासूत्र' पर भी वृत्ति लिखी थी। 'प्रपञ्चहृदय' नामक ग्रन्थ से भी यह बात सिद्ध होती है और प्रतीत होता है कि बोधायननिर्मित 'बेदान्तवृत्ति' का नाम 'कृतकोटि' था। कहा जाता है कि रामानुज स्वामी के समय उसकी प्रतिलिपि एक मात्र कश्मीर में उपलब्ध थी और वहाँ से आचार्य उसको कुरेश शिष्य की सहायता से कण्ठस्थ रूप में ही प्राप्त कर सके थे। बोधायनवृत्ति-दे० 'बोधायन ।' बोधार्यात्मनिर्वेद-भट्रोजि दीक्षित के समकालीन सदाशिव
दीक्षित रचित एक अध्यात्मवादी ग्रन्थ । बौद्ध दर्शन-बौद्ध दर्शन की ज्ञानमीमांसा 'आगम' अर्थात् तर्क अथवा युक्ति के आधार पर निकाले गये निष्कर्षों पर अवलम्बित है, इसमें 'निगम' का महत्त्व नहीं है। इस दर्शन का केन्द्रबिन्दु है 'प्रतीत्य समुत्पाद' (कार्यकारण
सम्बन्ध ) का सिद्धान्त, जिसके अनुसार कार्य-कारणश्रृंखला से संसार के सारे दुःख उत्पन्न होते हैं और कारणों को हटा देने से कार्य अपने आप बन्द हो जाता है। इसकी तत्वमीमांसा के अनुसार संसार में कोई वस्तु नित्य नहीं है। सभी क्षणिक हैं । इस सिद्धान्त को क्षणिकवाद कहते हैं। कोई स्थायी सत्ता न होकर परिवर्तनसन्तान ही भ्रम से स्थायी दिखाई पड़ता है। बौद्ध अनीश्वरवाद और अनात्मवाद के सिद्धान्त इसी से उत्पन्न होते हैं । बौद्ध अनीश्वरवाद के अनुसार विश्व के मूल में ब्रह्म अथवा ईश्वर नाम की कोई सत्ता नहीं है। विश्व प्रवहमान परिवर्तन है। इसका कोई कर्ता नहीं । ब्रह्म अथवा ईश्वर की खोज करना ऐसा ही है जैसे आकाश में ऐसी सुन्दरी तक पहुँचने के लिए सीढ़ी लगाना जो वहाँ नहीं है। इसी प्रकार किसी व्यक्ति के भीतर आत्मा की खोज भी व्यर्थ है। मनुष्य का व्यक्तित्व पाँच 'स्कन्धों' का संघात मात्र है, उसके भीतर कोई स्थायी आत्मा नहीं है। जिस प्रकार किसी गाड़ी के कलपुों को अलग-अलग कर देने के बाद उसके भीतर कोई स्थायी तत्त्व नहीं मिलता, उसी प्रकार स्कन्धों के विश्लेषण के बाद उनके भीतर कोई स्थायी तत्त्व नहीं मिलता।
अनात्मवाद का प्रतिपादन करते हुए भी बौद्ध दर्शन कर्म, पुनर्जन्म और निर्वाण मानता है। परन्तु प्रश्न यह है कि जब कोई स्थायी आत्मतत्त्व नहीं है तो कर्म के सिद्धान्त से किसका नियन्त्रण होता है ? कौन पुनर्जन्म धारण करता है ? और कौन निर्वाण प्राप्त करता है ? बौद्ध धर्म में इसका समाधान यह है-"मृत्यु के उपरान्त व्यक्ति के सब स्कन्ध-तथाकथित आत्मा आदि नष्ट हो जाते हैं । परन्तु उसके कर्म के कारण उन स्कन्धों के स्थान पर नये-नये स्कन्ध उत्पन्न हो जाते हैं। उनके साथ एक नया जीव ( जीवात्मा नहीं ) भी उत्पन्न हो जाता है। इस नये और पुराने जीव में केवल कर्मसम्बन्ध का सूत्र रहता है । कार्य-कारणशृङ्गला के सन्तान से दोनों जीव एफ से जान पड़ते हैं।" यही जन्म-मरण अथवा जन्म-जन्मान्तर का चक्र कर्म के आधार पर चलता रहता है। तृष्णा अथवा वासना रोकने से कर्म रुक जाता है और कर्म रुक जाने से जन्म-मरण का चक्र भी बन्द हो जाता है । जब सम्पूर्ण वासना अथवा तृष्णा का पूर्णतया क्षय हो जाता है तब निर्वाण प्राप्त होता है ।
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