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बादरायण-बार्हस्पत्य (नोति) शास्त्र
से महारथी अर्जुन ने बाण मारकर जमीन से पानी बानी-सन्तों के रचे हुए पद्यात्मक उपदेश । रैदास, मलूकनिकाला, जिसकी धारा सीधे पितामह के मुख में गिरी। दास आदि अनेक सन्तों की बानियाँ प्रसिद्ध है । सोलहवीं यहाँ पर चारों ओर पक्के घाटों से युक्त सरोवर है तथा शताब्दी में महात्मा दादू ने अपनी शिक्षाएँ पद्य की भाषा एक छोटा सा मन्दिर भी है।
में लिखीं जिन्हें 'बानी' कहते हैं । यह कृति ३७ अध्यायों बादरायण-उत्तर मीमांसा के प्रसिद्ध आचार्य । इनका रचा में विभाजित है, जिसमें ५००० पद्यों का संकलन है, जो 'वेदान्तसू.' या 'ब्रह्मसूत्र' ब्रह्ममीमांसा का एक वरिष्ठ प्रमुख धार्मिक प्रश्नों का उत्तर देते हैं। स्तुतियाँ भी इसमें ग्रन्थ है । इस ग्रन्थ की विशेषताओं से ज्ञात होता है कि सम्मिलित हैं। लालदास तथा रामसनेही सम्प्रदाय के इसकी रचना के पूर्व अनेक आचार्य इस दर्शन पर लिख प्रवर्तक रामचरन की शिक्षाएँ भी 'वानी' के रूप में चुके होंगे। सूत्रों में सात पूर्वाचार्यों का वर्णन प्राप्त होता संग्रहीत हैं। है। बादरायण चौथी या पांचवीं ई० पू० शताब्दी के बाबा लाल-बड़ोदा के पास इनका एक मठ है, जिसका पहले हए थे । बादरायण का शाब्दिक अर्थ है 'बदर का नाम है 'लाल बाबा का शैल'। ये निर्गण उपासक थे । वंशज' । सामविधान ब्राह्मण के अन्त में एक आचार्य का इतिहास में उल्लेख है कि संवत् १७०६ वि० में बाबा लाल नाम 'बदर' मिलता है। ऐसा समझा जाता है कि बाद- से दाराशिकोह की सात बार भेंट हुई और शाहजहाँ रायण और व्यास अभिन्न थे ।
की आज्ञा से दो हिन्दु दरवारियों ने बैठकर बाबा लाल बादामी (वातापीपुर)-पौराणिक कथानुसार प्राचीन काल
के उपदेश फारसी भाषा में लिख डाले। इनका नाम में यह नगर वातापी नामक असुर के अधीन था, जो 'नादिरुन्नुकात' रखा गया। ब्राह्मणों का परम शत्रु था। अगस्त्य ने इसका वध किया बाबालाली पंथ-निर्गुण निराकार के उपासक कबीर था। यह महाराष्ट्र के बीजापुर जिले में है। इसके पूर्वो- साहब के मत से प्रभावित अनेकों निर्गुणवादी पन्थ चले सर एक दुर्ग है, उसमें बायीं ओर हनुमानजी का मन्दिर, जिनमें से बाबालाली भी एक है, जो सरहिन्द में बाबा ऊपर जाने पर शिवमन्दिर, उससे आगे दो तीन और मंदिर लाल ने प्रचारित किया । दे० 'बाबा लाल' । इस पन्थ में मिलते हैं । दक्षिण की पहाड़ी पर पश्चिम ओर चार गुहा- मूर्तिपूजा वजित है। उपासना तथा पूजा का कार्य किसी मन्दिर हैं। तीन गुहाएँ स्मार्त धर्म की और एक जैन भी जाति का पुरुष कर सकता है, गुरु की उपासना पर धर्म को है। पहली गुहा में १८ भुजा वाली शिवमूर्ति, जोर दिया जाता है। रामनाम, सत्यनाम या शब्द का गणेशमूर्ति तथा गणों की मूर्तियाँ हैं। आगे विष्णु, लक्ष्मी योग और जप इनके विशेष साधन हैं। तथा शिवपार्वती की मूर्तियाँ हैं। पिछली दीवार में बार्हस्पत्य-(१) भौतिकवादी विचारकों की परम्परा इस महिषासुरमर्दिनी, गणेश तथा स्कन्द की मूर्तियाँ हैं। देश में प्राचीन काल से ही प्रचलित है । ये लोग वेदों में दूसरी गुहा में वामन, वराह, गरुडारूढ नारायण, शेषशायी विश्वास नहीं करते, इनको नास्तिक, चार्वाक, लोकायतिक नारायण की मूर्तियाँ तथा कुछ अन्य मूर्तियाँ हैं। तीसरी तथा बार्हस्पत्य आदि नामों से पुकारते हैं। बृहस्पति गुहा में अर्द्धनारीश्वर शिव, पार्वती, नृसिंह, नारायण, चार्वाकों के आचार्य माने जाते है, इसलिए चार्वाकों की वराह आदि की मूर्तियाँ हैं। जैन गुहा में जैन तीर्थङ्करों 'बार्हस्पत्य' उपाधि पड़ गयी है । दे० 'चार्वाक' । की मूर्तियाँ हैं।
(२) वेदाङ्ग ज्योतिष का भाष्य और टिप्पणी सहित बाध-तर्क शास्त्र में वर्णित पाँच प्रकार के हेत्वाभासों में अर्थ करनेवाले एक बार्हस्पत्य का उल्लेख प्रो० रामदास से एक । साध्याभाववान् पक्ष वाला हेतु बाध या बाधित गौड़ ने 'हिन्दुत्व' ग्रन्थ में किया है। पञ्चाङ्ग की रचनाकहलाता है । जैसे 'अग्नि ( पक्ष ) शीतल है ( साध्य )', विधि बार्हस्पत्य भाष्य से स्पष्ट हो जाती है। इस वाक्य में अग्नि का शीतल होना बाधित या असंभव है। बार्हस्पत्यतन्त्र-यह एक मिश्र तन्त्र है। बाध्व-ऐतरेय आरण्यक (३.२,३ ) में उद्धृत एक बार्हस्पत्य(नीतिशास्त्र-राजनीति की परम्परा में कथित
आचार्य । शालायन आरण्यक (८.३ ) में इसका उच्चा- है कि सर्वप्रथम पितामह ने एक लाख पद्यों में दण्डनीति रण 'वात्स्य' है।
शास्त्र की रचना की । उसका संक्षिप्त संस्करण दस हजार
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