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बलि (बरि, बदगु)-बाणगंगा
दान दिया । वामन ने तुरन्त अपना विशाल त्रिविक्रम रूप बहवच-'जिसमें बहत सी ऋचाएँ हों', यह ऋग्वेद का धारण कर एक चरण से सम्पूर्ण पृथ्वी और दूसरे से स्वर्ग पर्याय है। नाप लिया। तीसरे चरण के लिए स्थान नहीं था अतः बहवच उपनिषद्-एक परवर्ती उपनिषद् । बलि ने अपनी पीठ नाप दी। विष्णु ने बलि को पाताल बाघजात्रा-भील तथा राजपूतों में व्याघ्र पूर्वज से जन्म का राजा बनाकर वहाँ भेज दिया और स्वर्ग देवताओं को
ग्रहण करने की कथा प्रचलित है। इसका सम्बन्ध शिव वापस कर दिया । इसी को बलिछलन कहते हैं। पुराणों
तथा दुर्गा से भी है। किन्तु पूजा अधिकांश पर्वतीय भाग में बड़े बिस्तार से यह कथा दी हुई है । दे० 'वामन'।
में होती है। व्याघ्र का त्योहार नेपाल में 'बाघजात्रा' बलि (बरि, बेदगु)-बलि कन्नड़ शब्द है। इसका तमिल कहलाता है, जिसमें पुजारी (भक्त) लोग व्याघ्र के रूप में अनुवाद 'बरि' तथा तेलुगु 'बेदगु' है । इसका अर्थ है बाहरी नाचते हैं। जाति (अपने से भिन्न सांकेतिक चिह्न धारण करने वाली)। बाघदेव-बैनगङ्गा के किसानों में एक विचित्र कथा पायी टोने टोटके (जातीय चिह्न) में विश्वास रखने वाली एक जाती है। जब कोई व्यक्ति बाध द्वारा मारा जाता है जाति दक्षिण भारत में पायी जाती है। ये लोग एक तो उसकी पूजा बाघदेव के रूप में होती है। घर के विशेष प्रकार का सांकेतिक चिह्न धारण करते हैं। यह अहाते में एक झोपड़े के नीचे व्याघ्रप्रतिमा रखकर उसे चिह्न, जिस पर इस वर्ग का नामकरण होता है, किसी परि- पूजते हैं तथा प्रति वर्ष मृत्युदिवस मनाते समय उसकी चित पशु, मछली, पक्षी, पेड़, फल या फूल का होता है। विशेष पूजा होती है। वह पशु परिवार का सदस्य बन जो चिह्न धारण किया जाता है उसकी पूजा भी होती ।
जाता है। है। ये लोग वे सभी कार्य करते हैं जिनसे उस चिह्न बाघभैरों-नेपाल के गोरखा लोगों के मन्दिर विभिन्न (जानवर या पेड़ या मछली) की रक्षा हो तथा उसे चोट देवों के होते हैं तथा वे मिश्रित धर्म का बोध कराते हैं। न पहुँचे।
इन्हीं मन्दिरों में एक मन्दिर बाघभैरों (व्याघ्र रूप में
शिव) का है, जो मूल जातियों में बहुत लोकप्रिय है । बलिप्रतिपद्, रथयात्रावत-यह व्रत कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा
बाण-(१) महाराज हर्षवर्धन के प्रसिद्ध राजकवि । इन्होंने को मनाया जाता है। इस दिन भगवान् विष्णु इन्द्र के
सातवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में 'चण्डीशतक' नामक लिए बलि से लक्ष्मी को हरण करके लाये थे। दीपावली
काव्य लिखा, जो धार्मिक की अपेक्षा साहित्यिक अधिक की अमावस्या को उपवास रखना चाहिए। इसके अग्नि
है। इसमें चण्डी (दुर्गा) की स्तुति है। बाण की तथा ब्रह्मा देवता है, दोनों को रथ में रखकर पूजा
प्रसिद्ध साहित्यिक रचनाएँ हर्षचरित और कादम्बरी हैं करनी चाहिए । विद्वान् ब्राह्मण इस रथ को खींचकर व्रती
जो संस्कृत गद्य का अनुपम आदर्श हैं । हर्षचरित के प्रारम्भ ब्राह्मण के घर तक ले जायें, तदनन्तर सारे नगर में रथ
में बाण ने सूर्य की वन्दना की है और कादम्बरी के आरम्भ घुमाया जाय । ब्रह्मा की मूर्ति के दक्षिण पार्श्व में सावित्री
में ब्रह्मा, विष्णु, शंकरात्मक, त्रिगुणस्वरूप परमात्मा की। की मूर्ति रहे । विभिन्न स्थानों पर रथ रोककर आरती,
इससे प्रकट होता है कि बाण के समय में समन्वयात्मक दीपदान आदि किया जाय। जो इस रथयात्रा में भाग
देवपूजा प्रचलित थी। लेते हैं, जो रथ खींचते हैं, जो दीप जलाते हैं, जो श्रद्धा
(२) बलि का पुत्र प्रसिद्ध दानव राजा। इसकी पुत्री भक्ति प्रदर्शित करते हैं, वे सब लोग परलोक में उच्च
ऊषा का गान्धर्वविवाह श्री कृष्ण के पौत्र अनिरुद्ध के साथ स्थान प्राप्त करते हैं।
चित्रलेखा की सहायता से हुआ था। बहुला-भाद्र कृष्ण चतुर्थी को बहुला व्रत किया जाता है। बाणगङ्गा-यह तीर्थस्थान ब्रह्मसर (कुरुक्षेत्र) सरोवर से यह गौ की वात्सल्य भावना और सत्यनिष्ठा के लिए लगभग तीन मील है और एक कच्ची सड़क इसे ब्रह्मसर विख्यात है। इस दिन गौओं की सेवा पूजा करके व्रती से मिलाती है। महाभारत के युद्ध में पितामह भीष्म इस को पकाये हुए जौ का सेवन करना चाहिए। इस व्रत के स्थान पर अर्जुन के बाणों से आहत होकर शरशय्या पर अनुष्ठान से सन्तति और सम्पत्ति का बाहुल्य होता है। गिरे थे। उस समम उनके पानी मांगने पर उनकी इच्छा
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