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प्रबोधपरिशोधिनी-प्रभलिङ्गलीला
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काव्यादि के रूप में भी वेदान्ततत्त्व को समझाने का बड़ा महत्त्व है । सायंकाल लिपे-पुते स्थल में दीप जलाकर प्रयास आरम्भ हुआ । खजुराहो के चन्देल राजा कीर्तिवर्मा विष्णु भगवान् को जगाया जाता है और ईख, सिंघाड़े, के सभापंडित कृष्णमिश्र ने ११२२ वि० के लगभग प्रबोध- झड़बेर आदि नये शाक-फल-कन्द भोग लगाये जाते हैं, चन्द्रोदय नामक नाटक की रचना की । इस ग्रन्थ में लेखक तुलसीपूजन होता है । धार्मिक जन प्रायः इस उत्सव के ने अपनी कवित्व शक्ति एवं दार्शनिक प्रतिभा का अच्छा बाद हो गन्ना, बेगन आदि का सेवन आरम्भ करते हैं । परिचय दिया है।
प्रभाकर-पूर्वमीमांसा के इतिहास में सातवीं-आठवीं चन्द्रोदय' का शाब्दिक अर्थ है ज्ञान रूपी शताब्दी में दो प्रसिद्ध विद्वान् हए : (१) कुमारिल, जिन्हें चन्द्रमा का उदय । वास्तव में यह संसार के प्रलोभन भट्ट कहते हैं और प्रभाकर, जिन्हें गुरु कहते हैं। दोनों और अज्ञान से जीवात्मा की मुक्ति का रूपक है । नाटक ने शाबर भाष्य की व्याख्या की है, किन्तु भिन्न-भिन्न के पात्र मन की सूक्ष्म भावनाएँ तथा वासनाएँ हैं । इसमें रूपों में, और इस भिन्नता के आधार पर दोनों के सम्प्रदाय दिखाया गया है कि किस प्रकार विष्णुभक्ति विवेक को 'गुरुमत' और 'भाट्ट मत' के नाम से प्रचलित हो गये। जागृत कर वेदान्त, श्रद्धा, विचार तथा अन्य सहकारी प्रभाकर का प्रसिद्ध ग्रन्थ 'बृहती' शबरभाष्य का तदनुरूप तत्त्वों की सहायता से भ्रान्ति, अज्ञान, राग, द्वेष, लोभ
भाष्य है, वे शबर की आलोचना नहीं करते । कुमारिल आदि को पराजित करती है। इसके पश्चात् प्रबोध अथवा
का मत शबर से अनेक स्थलों पर भिन्न है। प्रभाकर का ज्ञान का उदय होता है। फलस्वरूप जीवात्मा ब्रह्म के
समय ठीक ज्ञात नहीं होता, किन्तु ये एवं कुमारिल साथ अपने तादात्म्य का अनुभव करता है, सम्पूर्ण कर्मों आठवीं शती के प्रारम्भ में हुए थे। का त्याग कर संन्यास ग्रहण करता है। इसमें वैष्णवधर्म प्रभावत-मान्यता ऐसी है कि इस व्रत में कोई व्यक्ति अर्ध और अद्वैत वेदान्त का माहात्म्य दर्शाया गया है। पात्रों मास तक उपवास करके बाद में दो कपिला गौ दान के कथनोपकथन में बौद्ध, जैन, चार्वाक, कर्ममीमांसा,
करता है, वह सीधा ब्रह्मलोक को जाता है और देवों द्वारा सांख्य, योग, न्याय दर्शन, कापालिक आदि सम्प्रदायों
___सम्मानित होता है । दे० मत्स्यपुराण,१०१.५४। का मनोरञ्जक चित्रण प्रस्तुत किया गया है।
प्रभास-पश्चिम भारत के सौराष्ट्र देश का प्रसिद्ध शैव तीर्थ, प्रबोधपरिशोधिनी-पद्मपादाचार्य कृत पञ्चपादिका के ऊपर
इसके साथ वैष्णव परम्पराएँ भी जुड़ गयी है । द्वादश प्रबोधपरिशोधिनी नाम की एक टीका नरसिंहस्वरूप के
ज्योतिलिङ्गों में प्रथम सोमनाथ प्रभासक्षेत्र में हैं । यह स्थान शिष्य आत्मस्वरूप ने लिखी है।
लकुलीश पाशुपत मत के शैवों का केन्द्रस्थल रहा है । प्रबोधव्रत-कार्तिक शुक्ल पक्ष में विष्णु तथा अन्यान्य
इस स्थल के पास ही श्री कृष्ण को जरा नामक व्याध का देवों का चार मास बाद शय्या त्याग कर उठना प्रबोध
बाण लगा था। यह शैव, वैष्णव दोनों का महातीर्थ है। कहलाता है। विश्वास यह है कि वर्षा में देवगण शयन
इस स्थान को बेरावल, सोमनाथपाटण, प्रभास, प्रभासकरते हैं, वर्षा समाप्त होने पर निद्रा से उठते हैं। यह
पट्टन (पत्तन) आदि कहते हैं। अवसर उत्सव का होता है। इसके पश्चात् ही मानवों के
प्रभासमाहात्म्य-स्कन्दपुराण से उद्धृत इस प्रभासक्षेत्र के यात्रा, विजय, व्यवसाय आदि शुभ कर्म प्रारम्भ होते हैं।
माहात्म्य में यहाँ के देवदर्शन-पूजन की फलश्रुति है।
मादागासवराज प्रबोधसुधाकर-शङ्कराचार्य रचित एक उपदेश ग्रन्थ । प्रभुलिङ्गलीला-प्रसिद्ध कन्नड़ भाषा के लिङ्गायत ग्रन्थ प्रबोधिनी एकादशी-कार्तिक शुक्ल एकादशी। हरिशयिनी 'प्रभुलिङ्गलीला' का तमिल भाषा में शिवप्रकाश स्वामी एकादशी (आषाढ़ शु० ११) को विष्णु शयन करते हैं ने १७वीं शताब्दी में पद्यानुवाद किया, जो सभी शवों और चार मास बाद कार्तिक में प्रबोधिनी एकादशी को द्वारा समादृत है। यह पुराण कहलाता है तथा धार्मिक उठते हैं, ऐसा पुराणों का विधान है। विष्णु द्वादश आदि- इतिहास के साथ-साथ भजन-पूजन के नियमों का भी त्यों में एक हैं । सूर्य के मेघाच्छन्न और मेघमुक्त होने का इसमें सङ्कलन है। यह वसव के साथी अल्लाम प्रभु के यह रूपक है। प्रबोधिनी एकादशी का उत्सव बहुत ही जीवन पर विशेष कर आधारित है। इसके रचयिता प्रसिद्ध है । इस तिथि को व्रत रखा जाता है, उपवास का चामरस और रचनाकाल १५१७ वि० है ।
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