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और पुनः समस्त ब्रह्माण्ड की रचना करते हैं। इस प्रकार ब्रह्माजी के सौ वर्ष पूर्ण होने के अनन्तर ब्रह्मा भी परब्रह्म में लीन हो जाते हैं, उस समय प्राकृतिक महाप्रलय का उदय होता है ।
इसी क्रम से ब्रह्माण्डप्रकृति अनादि काल से महाकाल के महान् चक्र में परिभ्रमणशील रहती आती है। इन प्रलयों का विस्तृत विवरण विष्णुपुराणस्थ प्रलयवर्णन में द्रष्टव्य है। अव्याकृत प्रकृति तथा उसके प्रेरक ईश्वर की विलीनता के प्रश्न को विष्णुपुराण सरल तरीके से स्पष्ट कर देता है :
प्रकृतिर्या मयाख्याता पुरुषश्वाप्यभावेती
व्यक्ताव्यक्तस्वरूपिणी । लीयेते परमात्मनि ॥
[ व्यक्त एवं अव्यक्त प्रकृति और ईश्वर ये दोनों ही निर्गुण एवं निष्क्रिय ब्रह्मतत्त्व में विलीन हो जाते हैं । ] यही आधिदेवी सृष्टिरूप महाप्रलय है।
जितने समय तक ब्रह्माण्डप्रकृति में सृष्टि-स्थितिलीला का विस्तार प्रवर्तमान रहता है, ठीक उतने ही समय तक महाप्रलयगर्भ में भी ब्रह्माण्डसृष्टि पूर्ण रूप से विलीन रहती है । इस समय जीवों की अनन्त कर्मराशियाँ उस महाकाश के आश्रित रहती हैं।
प्रशस्तपाद - वैशेषिक दर्शन के प्रसिद्ध व्याख्याकार आचार्य । कणाद के सूत्रों के ऊपर सम्भवतः इन्हीं का पदार्थधर्मसंग्रह नामक ग्रन्थ भाष्य कहलाता है, यद्यपि इसे वैशेषिक सूत्रों का भाग्य मानना कठिन प्रतीत होता है। दूसरे भाष्यों की शैली के विपरीत यह ( पदार्थधर्म संग्रह ) वैशेषिकसूत्रों के मुख्य विषयों पर स्वतन्त्र व्याख्या जैसा है । स्वयं प्रशस्तपाद इसे भाष्य न कहकर 'पदार्थधर्मसंग्रह' संज्ञा देते हैं ।
इसमें द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष तथा समवाय पदायों का वर्णन बिना किसी वाद-विवाद के प्रस्तुत किया गया है । कुछ सिद्धान्त जो न्यायवैशेषिक दर्शन में महत्त्व - पूर्ण स्थान रखते हैं, यथा सृष्टि तथा प्रलय का सिद्धान्त, संख्या का सिद्धान्त, परमाणुओं के आणविक माप के स्थिर करने में अणुओं की संख्या का सिद्धान्त तथा पीलुपाक का सिद्धान्त आदि सर्वप्रथम 'पदार्थधर्मसंग्रह' में ही उल्लिखित हुए हैं। ये सिद्धान्त कणाद के वैशेषिक सूत्रों में अनुपलब्ध है।
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प्रशस्तपाद का समय ठीक-ठीक निश्चित करना कठिन
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प्रशस्तपाद प्रसाव
समय पाँचवीं छठी शताब्दी
है । अनुमानतः इनका होना चाहिए।
प्रशास्ता वैदिक यज्ञ के पुरोहितों में से एक का नाम । छोटे यज्ञों में उसका कोई कार्य नहीं होता, किन्तु पशुयज्ञ तथा सोमयज्ञ में उसका उपयोग होता है । सोमयज्ञ में वह मुख्य पुरोहित होता का सामगान में सहायक रहता है । ऋग्वेद ( ४.९, ५, ६.७१, ५, ९,९५, ५) में उसे उपवक्ता भी कहा गया है यह नाम भी प्रशास्ता के अर्थ का द्योतक है तथा यह इसलिए रखा गया है कि उसके मुख्य कार्यों में से एक कार्य दूसरे पुरोहितों को प्रेष ( निदेश ) देना भी था । उसका अन्य नाम 'मैत्रावरुण' था, क्योंकि उसके द्वारा गायी जाने वाली अधिकांश स्तुतियां मित्र तथा वरुण के प्रति होती थीं।
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सदृश
प्रश्न --- जिज्ञासा अथवा वादारम्भ का वचन । प्रश्न का 'निश्चय' अर्थ ऐतरेय ब्राह्मण (५.१४) में कथित है। यजुर्वेद ( वा० सं० ३०.२० ० प्रा० २.४,६,१) में उत पुरुषमेध की बलितालिका में प्रश्नी, अभिप्रश्नी, प्रश्नविवाक् तीन नाम आये हैं । सम्भवतः ये न्याय- अभियोग के वादी प्रतिवादी तथा न्यायाधीश है । प्रश्नोपनिषद् - एक अथर्ववेदीय उपनिषद् उपनिषदों का कलेवर अधिकतर गद्य में है, किन्तु इसका गद्य प्रारम्भिक उपनिषदों से भिन्न लौकिक संस्कृत के निकट है। इसकी श्रेणी में मंत्रायणीय तथा माण्डूक्य को रखा जा सकता है । इसमें ऋषि पिप्पलाद के छ: ब्रह्मजिज्ञासु शिष्यों ने वेदान्त के छ: मूल तत्त्वों पर प्रश्न किये हैं। इन्हीं छ प्रश्नों के समाधान रूप में यह प्रश्नोपनिषद् बनी है । प्रजापति से असत् और प्राण की उत्पत्ति, चिच्छक्तियों से प्राण की श्रेष्ठता, चिच्छक्तियों के लक्षण और विभाग, सुषुप्ति और तुरीयावस्था, ओंकार ध्याननिर्णय और षोडशेन्द्रियाँ; प्रश्नोपनिषद् के यही छः विषय हैं । शङ्कराचार्य, आनन्दतीर्थ, दामोदराचार्य, नरहरि, भट्टभास्कर, रङ्गरामानुज प्रभृति अनेकों आचार्यों ने इस पर भाष्य व टीकाएँ रची हैं।
प्रसाद -- ( १ ) प्रसन्नता अथवा कृपा, अर्थात् भक्त के ऊपर भगवान् की कृपा । कर्मसिद्धान्त के अनुसार सदसत्कर्मी का फल भोगना ही पड़ता है । किन्तु भक्तिमार्ग के अनुया - यियों का विश्वास है कि भगवत्कृपा के द्वारा पूर्व कर्मोंपाप आदि का क्षय हो जाता है। प्रपत्ति के पश्चात् भक्त का पूरा दायित्व भगवान् अपने ऊपर ले लेते हैं ।
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