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प्राच्यसामग-प्राणतत्त्व
प्राच्यसामग-सामवेद की परम्परा में एक शाखा । हिरण्य- अपान, व्यान इत्यादि नामों से हृदय, नाभि, कण्ठादि
नाभ के शिष्य 'प्राच्यसामग' नाम से विख्यात हुए। स्थानों में स्थित पञ्च स्थूल वायुओं का संचालन करती है । प्राजापत्य-(१) प्रजापति से उत्पन्न, अथवा प्रजापति इस दृश्य संसार के समस्त पदार्थों के दो भेद किये जा
का कार्य । प्रजापति के लिए किये गये यज्ञ को भी प्राजा- सकते हैं, जिनमें प्रथम बाह्यांश एवं द्वितीय आन्तरांश है । पत्य कहते हैं।
इनमें आन्तरांश सूक्ष्मशक्ति प्राण है एवं बाह्यांश जड़ (२) आठ प्रकार के विवाहों में से एक प्राजापत्य है। यह अंश बृहदारण्यकोपनिषद् में भी निर्दिष्ट है । विवाह है । इसकी गणना चार प्रशस्त प्रकार के विवाहों इसी विषय को बृहदारण्यकभाष्य और भी स्पष्ट कर में की जाती है । इसके अनुसार पति और पत्नी प्रजा देता है । यथाअर्थात् सन्तान के उद्देश्य से विवाह करते हैं और इस कार्यात्मक जड़ पदार्थ नाम और रूप के द्वारा शरीराबात की प्रतिज्ञा करते हैं कि धर्म, अर्थ और काम में वे वस्था को प्राप्त करता है, किन्तु कारणभूत सूक्ष्म प्राण एक दूसरे का अतिक्रमण नहीं करेंगे। यह आधुनिक
उसका धारक है । अतः यह कहा जा सकता है कि यह 'सिविल मैरेज' ( सामाजिक अनुबन्धमूलक विवाह ) से
सूक्ष्म प्राण शक्ति ही एकत्रीभूत स्थूल शक्ति (शरीर) मिलता जुलता है।
के अन्दर अवस्थित रहकर उसकी संचालिका है। धार्मिक विवाह में पति और पत्नी की समता नहीं किन्तु
इस सूक्ष्म शक्ति प्राण के द्वारा ही पञ्चीकरण से पृथ्वी, एकता स्थापित होती है। इसमें दो व्यक्तियों की समान
जल, अग्नि आदि स्थूल पञ्च महाभूतों की उत्पत्ति होती स्वतन्त्रता नहीं किन्तु एक का दूसरे में पूर्ण विलय है । इसके
है। इसी सूक्ष्म प्राणशक्ति की महिमा से अणु-परमाणुओं लिए किसी अनुबन्ध की आवश्यकता नहीं होती । दे० 'विवाह'।
के अन्दर आकर्षण-विकर्षण के द्वारा ब्रह्माण्ड की स्थितिप्राजापत्यवत-इस व्रत में कृच्छ के उपरान्त एक गौ दान
दशा में सूर्य और चन्द्रमा से लेकर समस्त ग्रह-उपग्रह कर ब्राह्मणों को भोजन कराया जाता है । व्रतकर्ता भगवान्
आदि अपने अपने स्थानों पर स्थित रहते हैं । समस्त जड़ शङ्कर के लोक को जाता है।
पदार्थ भी इसी के द्वारा कठिन, तरल अथवा वायवीय प्राण-सूक्ष्म जीवनवायु के पाँच प्रकारों-प्राण, अपान,
रूप में अपनी अपनी प्रकृति के अनुसार अवस्थित रह व्यान, उदान तथा समान में से एक । आरण्यकों तथा
सकते हैं । इस प्रकार इस समस्त ब्रह्माण्ड की सृष्टि और उपनिषदों में यह विश्व की एकता का सर्वाधिक प्रयुक्त
स्थिति के मूल में सूक्ष्म प्राणशक्ति का ही साम्राज्य है । संकेत कहा गया है । पाँचों में से कभी दो (प्राण-अपान;
प्राणशक्ति की उत्पत्ति परमात्मा की इच्छाशक्ति से ही या प्राण-व्यान; या प्राण-उदान ) या अदल-बदलकर
मानी जाती है, जो समष्टि और व्यष्टि रूपों से व्यवहृत तीन अथवा चार साथ-साथ प्रयुक्त होते हैं। किन्तु
होती है। क्योंकि यह समस्त जगत् परमेश्वर के संकल्प जब ये सभी एक साथ प्रयुक्त होते हैं तब इनका वास्त
मात्र से प्रसूत है अतः तदन्तर्वतिनी प्राणशक्ति भी परमेश्वर विक अर्थ निश्चित नहीं होता। व्यापक रूप में 'प्राण'
__की इच्छा से उद्भूत है। ज्ञानेन्द्रिय या चेतना को प्रकट करता है । प्राण शब्द
इसी प्रकार सूर्य-चन्द्र आदि के माध्यम से सृष्टि का कभी कभी केवल श्वास का साधारण अर्थ बोध कराता है, विकास एवं ऋतु संचालन और उनका परिवर्तन आदि किन्तु इसका उचित अर्थ श्वास का आदान-विसर्जन है। प्राणशक्ति द्वारा ही होता है। 'प्राणायाम' क्रिया में यही भाव अभिप्रेत है ।
। सूर्य के साथ समष्टिभूत प्राण का सम्बन्ध होने पर प्राणतत्त्व-जिस आन्तरिक सूक्ष्म शक्ति द्वारा दृश्य जगत् में ऋतुपरिवर्तन, सस्यसमृद्धि का विस्तार एवं संसार की जीवात्मा का देह से सम्बन्ध होता है, उसे प्राण कहते हैं। रक्षा तथा प्रलयादि सभी कार्य समष्टि प्राण की शक्ति यह प्राणशक्ति ही स्थूल प्राण, अपान, व्यान, समान एवं से ही सम्पन्न होते रहते हैं। प्राण की इस धराधारिणी उदान नामक पञ्च वायु एवं उनके धनंजय, कृकल, कूर्म शक्ति को छान्दोग्य उपनिषद् अधिक स्पष्ट कर देती है । आदि रूप न होकर इन सबकी सञ्चालिका है।
यथा-जिस प्रकार रथचक्र की नाभि के ऊपर चक्रदण्ड एक ही प्राणशक्ति पाँच रूपों में विभक्त होकर प्राण, (अरा) स्थित रहते हैं, उसी प्रकार प्राण के ऊपर समस्त
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