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प्रवचन-प्रलयतत्व
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करता है और पुनः नरक नहीं देख सकता। प्रयाग में और जब कोई इस सम्प्रदाय की दीक्षा लेता है तो उसे वैश्यों और शद्रों के लिए आत्महत्या विवशता की स्थिति पाँचों मन्त्रों का उच्चारण करना पड़ता है । में यदा-कदा ही मान्य थी। किन्तु ब्राह्मणों और क्षत्रियों प्रवज्या-संन्यास आश्रम । इसका प्रयोग संन्यास या भिक्षुके द्वारा आत्म-अग्न्याहति दिया जाना एक विशेष विधान धर्म ग्रहण करने की विधि के अर्थ में होता है। महाभारतके अनुसार उचित था। अतः जो ऐसा करना चाहें तो काल के पूर्व प्रव्रज्या का मार्ग सभी वर्गों के लिए खुला ग्रहण के दिन यह कार्य सम्पन्न करते थे, या किसी व्यक्ति था। उपनिषद् में जानश्रुति शूद्र को भी मोक्ष मार्ग का को मूल्य देकर डूबने के लिए क्रय कर लेते थे। उपदेश किया गया है और युवा श्वेतकेतु को तत्त्व प्राप्ति ( अलबरूनी का भारत, भाग २, पृ० १७०)। सामान्य का उपदेश मिला है। यद्यपि महाभारत काल में यह बात धारणा यह थी कि इस धार्मिक आत्मघात से मनुष्य जन्म मानी जाती थी तथापि यथार्थ में लोग समझने लगे कि और मरण के बन्धन से मुक्ति पा जाता है और उसे ब्राह्मण और विशेषतः चतुर्थाश्रमी ही मोक्ष मार्ग के पात्र स्थायी अमरत्व (मोक्ष) अथवा निर्वाण की प्राप्ति होती
है । महाभारत काल में प्रव्रज्या का मान बहुत बढ़ा हुआ है । इस धारणा का विस्तार यहाँ तक हुआ कि अहिंसा- जान पड़ता है। उन दिनों वैदिक धर्मियों को प्रव्रज्या वादी जैन धर्मावलम्बी भी इस धार्मिक आत्मधात को बहत कठिन थी। बौद्धों तथा जैनों ने उसको बहुत सस्ता प्रोत्साहन देने लगे। कुछ पुराणों के अनुसार तीर्थयात्रा कर डाला और बहुतों के लिए वह पेट भरने का साधन आरम्भ करके रास्ते में ही व्यक्ति यदि मृत्यु को प्राप्त हो मात्र हो गयी । और प्रयाग का नाम ले ले तो उसे बहुत पुण्यफल होता
प्रलयतत्त्व-भूखण्ड या ब्रह्माण्ड का मिट जाना, नष्ट हो है । अपने घर में मरते समय भी यदि व्यक्ति प्रयाग का
जाना । प्रलय चार प्रकार के होते हैं : नैमित्तिक, नाम स्मरण कर ले तो ब्रह्मलोक को पहुँच जाता है और
प्राकृतिक, आत्यन्तिक और नित्य । प्रथम प्रलय ब्रह्माजी का वहाँ संन्यासियों, सिद्धों तथा मुनियों के बीच रहता है।
एक दिन समाप्त हो जाने पर रात्रि के प्रारम्भ काल में प्रवचन-इसका अर्थ मौखिक शिक्षा है ( शत० ब्रा० ११.
होता है, उसे नैमित्तिक प्रलय कहते हैं। द्वितीय प्राकृतिक ५.७.१ ) । धर्म में प्रवचन का बड़ा महत्त्व है । आचार्य
प्रलय तब होता है जब ब्रह्माण्ड महाप्रकृति में विलीन हो अथवा गुरु के मुख से जो वचन निकलते हैं उनका सीधा
जाता है । तृतीय आत्यन्तिक प्रलय योगीजन ज्ञान के द्वारा प्रभाव श्रोता पर पड़ता है । अतः प्रायः सभी सम्प्रदायों में
ब्रह्म में लीन हो जाने को कहते हैं । उत्पन्न पदार्थों का जो प्रवचन की प्रणाली प्रचलित है।
अहर्निश क्षय होता रहता है, उसे नित्य प्रलय के नाम से प्रवर-इसका उपयुक्त अर्थ सूचना है, जिससे अग्नि को
व्यवहृत करते हैं। इन चतुर्विध प्रलयों में से नैमित्तिक सम्बोधित कर यज्ञ के आरम्भ में उसे आवाहित करते थे। एवं प्राकृतिक महाप्रलय ब्रह्माण्डों से सम्बन्धित होते हैं किन्तु अग्नि को पुरोहित के पितरों के नाम से आमन्त्रित तथा शेष दो प्रलय देहधारियों से सम्बन्धित मितिक करते थे, इसलिए प्रवर का तात्पर्य पितरों की संख्या प्रलय के सम्बन्ध में विष्णुपुराण का मत निम्नलिखित है: हो गया। आगे चलकर एक वंश में प्रसिद्ध पितरों की __ ब्रह्मा की जानदवस्था में उनकी प्राणशक्ति की प्रेरणा जितनी संख्या होती थी वही उसका प्रवर माना जाता से ब्रह्माण्डचक्र प्रचलित रहता है, किन्तु उनकी निद्राथा। 'गोत्रप्रवरमञ्जरी' में इसका विस्तृत विवेचन है। वस्था में समस्त ब्रह्माण्ड निश्चेष्ट हो जाता है और उसकी प्रवर्तक-किसी धर्म अथवा सम्प्रदाय को चलाने वाला। स्थिति जल-भुनकर नष्ट हो जाती है। नैमित्तिक प्रलय को मानभाउ सम्प्रदाय में इस शब्द का विशेष रूप से प्रयोग ब्राह्म प्रलय भी कहते हैं। उसमें ब्रह्माजी विष्णु के साथ हुआ है। इस सम्प्रदाय के मूल प्रवर्तक दत्तात्रेय कहे योगनिद्रा में प्रसुप्त हो जाते हैं। इस समय प्रलय में भी जाते है, साथ ही उनका कहना है कि चार युगों में से रहने की शक्ति रखने वाले कुछ योगिगण जनलोक में प्रत्येक में एक-एक स्थापक अथवा प्रवर्तक होते आये हैं। अपने को जीवित रखते हुए ध्यानपरायण रहते हैं। ऐसे इस प्रकार वे पाँच प्रवर्तक मानते हैं। पाँचों प्रवर्तकों को योगियों द्वारा चिन्त्यमान कमलयोनि ब्रह्मा ब्रह्मरात्रि को पञ्चकृष्ण भी कहते हैं। इनसे सम्बन्धित पाँच मन्त्र हैं व्यतीत कर ब्राह्म दिवस के उदय में प्रबुद्ध हो जाते हैं
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