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प्रमा-प्रयाग
प्रमा-भ्रान्तिरहित यथार्थ ज्ञान की स्थिति अथवा चेतना को प्रमा कहते हैं। दे० 'प्रमाण' ।
प्रमाज्ञान -- वैशेषिक मतानुसार ज्ञान के दो भेद हैं-प्रमा और अप्रमा । यथार्थ ज्ञान प्रमा और अयथार्थ, भ्रान्त ज्ञान अप्रमा कहलाता है । प्रमाण - न्याय दर्शन का प्रमुख विषय प्रमाण है । यथार्थ ज्ञान को प्रमा कहते हैं। यथार्थ ज्ञान का जो साधन हो अर्थात् जिसके द्वारा यथार्थ ज्ञान हो सके, उसे प्रमाण कहा जाता है। गौतम ने यथार्थ ज्ञान के चार प्रमाण माने है(१) प्रत्यक्ष (२) अनुमान, (३) उपमान और ( ४ ) शब्द | इनमें आत्मा, मन, इन्द्रिय और वस्तु का संयोग रूप जो प्रमाण है वही प्रत्यक्ष है । इस ज्ञान के आधार पर लिङ्ग अथवा हेतु से जो ज्ञान होता है उसे अनुमान कहते हैं । जैसे हमने बराबर देखा है कि जहाँ धुआँ रहता है वहां अग्नि रहती है इसलिए धुआं को देखकर अग्नि की उपस्थिति का अनुमान किया जाता है। गौतम का तीसरा प्रमाण उपमान है। किसी जानी हुई वस्तु के सादृश्य से न जानी हुई वस्तु का ज्ञान जिस प्रमाण से होता है वही उपमान है । जैसे नील गाय गाय के समान होती है। जीवा प्रमाण है शब्द, जो आप्त वचन ही हो सकता है न्याय दर्शन में ऊपर लिखे चार ही प्रमाण माने गये हैं । मीमांसक और वेदान्ती अर्थापत्ति, ऐतिह्य, सम्भव और अभाव ये चार और प्रमाण मानते हैं। नैयायिक इन्हें अपने चारों प्रमाणों के अन्तर्गत समझते हैं ।
प्रमाणपद्धति - यह माध्व संप्रदाय के स्वामी जयतीर्थाचार्य (१५वीं शताब्दी) द्वारा विरचित एक ग्रन्थ है । प्रमाणमाला - आनन्दबोध भट्टारकाचार्य (१२वीं शताब्दी) के तीन ग्रन्थ न्यायमकरन्द, प्रमाणमाला एवं न्यायदीपावली प्रसिद्ध हैं। तीनों में उन्होंने अद्वैत मत का विवेचन किया है।
प्रमेय गौतम के मतानुसार प्रमाण के विषय अर्थात् जो प्रमाणित किया जाय उसको प्रमेय कहते हैं। न्यायदर्शन में प्रमेय वस्तु पदार्थ के अन्तर्गत है और उसके बारह भेद है - (१) आत्मा सब वस्तुओं को देखने वाला, भोग करने : वाला और अनुभव करने वाला । (२) शरीर : भोगों का आयतन या आधार। (३) इन्द्रियाँ भोगों के साधन । (४) अर्थ : वस्तु, जिसका भोग होता है । (५) मन भोग का
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माध्यम । ( ६ ) बुद्धि : अन्तःकरण की वह भीतरी इन्द्रिय जिसके द्वारा सब वस्तुओं का ज्ञान होता है । ( ७ ) प्रवृत्ति : वचन, मन और शरीर का व्यापार (८) दोष जिसके द्वारा अच्छे या बुरे कामों में प्रवृत्ति होती है । ( ९ ) प्रेत्यभाव : पुनर्जन्म (१०) फल सुदुःख का संवेदन या अनुभव । (११) दु:ख पीड़ा, क्लेश (१२) अपवर्ग दुःख से अत्यन्त निवृत्ति अथवा मुक्ति ।
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इस सूची से यह न समझना चाहिए कि इन वस्तुओं के अतिरिक्त और प्रमाण के विषय या प्रमेय नहीं हो सकते प्रमाण के द्वारा बहुत सी बातें सिद्ध की जाती है। पर गौतम ने अपने सूत्रों में उन्हीं बातों पर विचार किया है, जिनके ज्ञान से अपवर्ग या मोक्ष की प्राप्ति हो सके । प्रमेयरत्नार्णव - बालकृष्ण भट्ट द्वारा रचित यह ग्रन्थ वल्लभाचार्य के पुष्टि सम्प्रदाय का है। इसका रचनाकाल १६५७ वि० के लगभग है ।
प्रमेय रत्नावली - आचार्य बलदेव विद्याभूषण द्वारा रचित यह ग्रन्थ गौडीय वैष्णवों के मतानुसार लिखा गया है । प्रमेयसागर श्रीष्णव मतावलम्बी यज्ञमूर्ति कृत यह ग्रन्थ तमिल भाषा में है ।
प्रयागङ्गा-यमुना के संगम स्थल प्रयाग को पुराणों (मत्स्य १०९.१५ स्कन्द, काशी० ७.४५ पद्म ६.२३. २७-३५ तथा अन्य) में 'तीर्थराज' ( तीर्थों का राजा ) नाम से अभिहित किया गया है। इस संगम के सम्बन्ध में ऋग्वेद के खिल सूक्त (१०.७५) में कहा गया है कि जहाँ कृष्ण (काले ) और श्वेत ( स्वच्छ ) जल वाली दो सरिताओं का संगम है वहाँ स्नान करने से मनुष्य स्वर्गारोहण करता है। पुराणोति यह है कि प्रजापति (ब्रह्मा) ने आहुति की तीन वेदियाँ बनायी थीं— कुरुक्षेत्र, प्रयाग और गया । इनमें प्रयाग मध्यम वेदी है। माना जाता है। कि यहाँ गङ्गा, यमुना और सरस्वती ( पाताल से आने वाली) तीन सरिताओं का संगम हुआ है । पर सरस्वती का कोई बाह्य अस्तित्व दृष्टिगत नहीं होता । मत्स्य (१०४.१२), कूर्म (१.३६.२७) तथा अग्नि (१११.६-७ ) आदि पुराणों के अनुसार जो प्रयाग का दर्शन करके उसका नामोच्चारण करता है तथा वहाँ की मिट्टी का अपने शरीर पर आलेप करता है वह पापमुक्त हो जाता है। वहाँ स्नान करने वाला स्वर्ग को प्राप्त होता है तथा
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